उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
एक दिन प्रातःकाल पार्वती ने माता से कहा - 'मां, मैं फिर पाठशाला जाऊंगी।' क्यों?
पार्वती पहले कुछ विस्मित हुई, फिर सिर हिलाकर बोली - 'मैं जरूर जाऊंगी।' 'तो जा, पाठशाला जाने से मैंने कभी तुझे रोका तो नहीं है।' उसी दिन दोपहर में पार्वती ने दासी का हाथ पकड़कर बहुत दिन से छोड़ी हुई स्लेट और पेंसिल को ढूंढकर बाहर निकाला और उसी पुराने स्थान पर शांत एवं गंभीर भाव से जा बैठी। दासी ने कहा - 'गुरु जी, पारो को अब मारना नहीं, यह अपनी इच्छा से पढ़ने आई है, जब तक इसकी इच्छा होगी पढ़ेगी और जब इच्छा न होगी, घर चली जायेगी।'
गुरुजी ने मन-ही-मन कहा, तथास्तु! प्रकट में कहा - 'यही होगा।'
एक बार ऐसी इच्छा हुई कि पूछे कि पार्वती कलकत्ता क्यों नहीं भेजी गयी? किंतु यह बात नहीं पूछी। पार्वती ने देखा कि उसी स्थान पर और उसी बेंच पर छात्र-सरदार भूलो बैठा है। उसे देखकर पहले एक बार हंसी आयी, लेकिन दूसरे ही क्षण आखों में आँसू डबडबा आये। फिर उसे भूलो के ऊपर क्रोध आया। मन में सोचा कि केवल उसी ने देवदास को घर से बाहर किया। इस तरह से बहुत दिन बीत गए।
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