उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
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बहुत दिनों के बाद देवदास मकान पर लौटा। जल्दी से पार्वती के पास आया, नाना प्रकार की बातचीत हुइं। उसे अधिक बातचीत नहीं करनी थी - थी भी तो वह कर नहीं सकी। परंतु देवदास ने बहुत सी बातें कहीं। प्राय: सभी कलकत्ता की बातें थीं। गर्मी की छुट्टी बीत गई, देवदास फिर कलकत्ता गया। इस बार भी रोना धोना हआ, परंतु पिछली बार-सी उसमें वह गंभीरता नहीं थी। इस तरह चार वर्ष बीत गये। इन कई वर्षों में देवदास के स्वभाव में इतना परिवर्तन हुआ, जिसे देखकर पार्वती ने कई बार छिपे-छिपे आँसू गिराये। इसके पहले देवदास में जो ग्रामीण दोष थे, वे शहर में रहने से एकबारगी दूर हो गये। अब उसे डासन शू, अच्छा सा कोट, पैंट, टाई, छड़ी, सोने की चेन और घड़ी, गोल्डन फ्रेम का चश्मा आदि के न होने से बड़ी लज्जा लगती है। गांव की नदी के तीर पर घूमना अब उसे अच्छा नहीं लगता और बदले में हाथ में बंदूक लेकर शिकार खेलने में विशेष आनंद मिलता है। छोटी मछली पकड़ने के बजाय बड़ी मछलियों के फंसाने की इच्छा है। यही क्यों - सामाजिक बात, राजनीतिक चर्चा, सभा- समिति, क्रिकेट फुटबाल आदि की आलोचनाएं होती हैं। हाय रे! कहां वह पार्वती वह उन लोगों का ताल - सोनापुर गांव! बाल्यकाल की दो-एक सुख की बातों का भी स्मरण न आता हो - ऐसा नहीं; किंतु अनेक प्रकार के कार्य भार के कारण वे बातें बहुत देर तक हृदय में जगह नहीं पातीं। फिर गर्मी की छुट्टी हुई। पिछले वर्ष की गर्मी की छुट्टी में देवदास विदेश घूमने चला गया था, घर नहीं गया था। इस बार माता-पिता के बहुत आग्रह करने पर और अनेकों पत्र लिखने पर अपनी इच्छा न रहते हुए भी देवदास बिस्तर बांधकर सोनापुर गांव के लिए हावड़ा स्टेशन पर आया। जिस दिन वह घर आया उस दिन उसका शरीर कुछ अस्वस्थ था, तभी से बाहर नहीं निकला। दूसरे दिन पार्वती के घर पर आकर बुलाया- 'चाची!'
पार्वती की माता ने आदर के साथ कहा - 'आओ बेटा यहां आकर बैठो।'
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