उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
'हां बहू, यह मैं भी समझती हूं। देखो न, जब देवदास कलकत्ता गया था तो पारो सिर्फ आठ बरस की थी, पर उसी अवस्था में वह उसकी चिंता करते-करते सूखकर कांटा हो गयी। देवदास की यदि कभी एक भी चिट्ठी आती थी, तो वह उसे बड़े चाव से दिन-रात बारम्बार पढ़ा करती थी। यह हम लोग अच्छी तरह जानती हैं।'
देवदास की मां ने मन-ही-मन सब-कुछ समझ लिया था। थोड़ी मुस्करायी। उस मुस्कराहट में कितने छपे हए भाव गुंथे थे, वह मैं नहीं कह सकता, किन्तु वेदना बहुत थी। वे सभी बातें जानती थी, साथ ही पार्वती को प्यार भी करती थी। किंतु वह कन्याओं के बेचने और खरीदने वाले घर की लडकी थी, फिर घर के पास ही कुटुंब था। अतएव ऐसे के साथ विवाह संबंध होना ठीक नहीं था। उसने कहा - 'चाची, वे इतनी छोटी उम्र में लड़के का ब्याह नहीं करेंगे; खासकर पढ़ने लिखने के दिनों में। इसी से वे मुझसे कहते थे कि बड़े लड़के द्विजदास का बचपन में ब्याह कर देने से बड़ी हानि हुई। लिखना- पढ़ना एकबारगी छूट गया।'
पार्वती की दादी का मुख यह सुनकर बिलकुल उतर गया। लेकिन फिर भी कहा-'यह तो मैं भी जानती हूं बहू, लेकिन क्या तुम यह नहीं जानती कि पारो अब बड़ी हुई! उसके देह की गठन भी लम्बी है, इसी से यदि नारायण इस बात को...।'
देवदास की मां ने बात काटकर कहा-'नहीं चाची, मैं यह बात उनसे नहीं कह सकूंगी। तुम्हीं कहो मैं किस मुंह से इस वक्त उनसे यह बात कहूं?' यह बात यही समाप्त हो गयी। परन्तु स्त्रियों के पेट में भला कभी बात पचती है! जब स्वामी भोजन करने के लिए बैठे, तो देवदास की मां ने कहा-'पार्वती की दादी उसके ब्याह की बातचीत करती थी।'
स्वामी ने मुंह ऊपर उठाकर कहा-'हां, अब पार्वती भी इस योग्य हो गयी है, अब उसका विवाह कर देना ही उचित है।'
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