उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
'यही तो आज वह कह रही थी कि अगर देवदास ने साथ उसका...।'
स्वामी ने भौं चढ़ाकर कहा-'तो तुमने क्या कहा?'
'मैं क्या कहती? दोनों में बड़ा स्नेह है; पर इसी से क्या कन्या के बेचने-खरीदने वाले चक्रवर्ती घराने की लड़की लाऊंगी? फिर घर के पास ही घर ठहरा। छि:! छि:!
स्वामी ने सन्तुष्ट होकर कहा-'ठीक है, क्या घराने का नाम हंसाऊंगा? इन सब बातों पर कान नहीं देना।' गृहिणी ने एक सूखी हंसी हंसकर कहा-'नहीं, मैं इन सब बातों पर कान नहीं देती। पर तुम भी यह मत भूल जाना।' स्वामी ने गम्भीर मुख से बात का कौर उठाते हुए कहा-'ऐसा होता तो इतनी बड़ी जमीदारी कभी की फुंक गयी होती।' जब वैवाहिक प्रस्ताव के अस्वीकृति की बात नीलकंठ के कानों में पहुंची, तो उन्होंने मां को बुलाकर बड़े तिरस्कार के साथ कहा-'मां, तुम क्यों ऐसी बात कहने गयी?' मां चुप रही।
नीलकंठ ने कहा-'कन्या के ब्याह के लिए हम लोग किसी के पांव नहीं पड़ते, बल्कि कितने ही लोग हम लोगों के पांव पड़ते हैं। मेरी लड़की कुरूपा नहीं है! देखो, तुम लोगों से कहे देता हूं कि एक हफ्ते के भीतर ही सम्बन्ध ठीक कर लूंगा। ब्याह के लिए क्या सोच करना!'
किन्तु जिसके लिए पिता ने इतनी बड़ी बात कही थी; उससे उसके सिर पर बिजली-सी गिरी।
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