उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
पार्वती ने कहा-'जो कुछ कहना था, सभी तो मैंने कह दिया।'
'परन्तु कुछ भी तो समझ में नहीं आता।'
'न आता होगा।' यह कहकर पार्वती दूसरी ओर देखने लगी।
मनोरमा ने सोचा कि पार्वती बात छिपाती है, उसकी कुछ कहने की इच्छा नहीं है। उसे बड़ा गुस्सा आया, दुखित होकर उसने कहा-'पारो, जिसमें तुम्हे दुख है, उसमें मुझे भी दुख है। तुम सुखी रहो- यही मेरी आन्तरिक प्रार्थना रहती है। यदि तुम किसी से कोई बात न कहना चाहती हो तो मत कहो, किन्तु इस तरह ठट्टा करना ठीक नहीं है।'
पार्वती ने दुखित होकर कहा- 'ठट्टा नहीं करती हूं बहिन, जितना मैं जानती हूं उतना तुम्हें बता दिया है। मैं यही जानती हूं कि मेरे स्वामी का नाम श्री देवदास है। उम्र उन्नीस या बीस वर्ष है, यही बात तुमसे भी कही है।'
'किन्तु मैंने तो सुना है कि तुम्हारा सम्बन्ध दूसरे से स्थिर हआ है?'
'स्थिर और क्या होगा? दादा का तो अब किसी के साथ ब्याह होगा नहीं होगा तो मेरे साथ न, मैंने तो ऐसी कोई खबर नहीं सुनी है।' मनोरमा ने जो कुछ सुना था, वह कहने लगी।
पार्वती ने बाधा देकर कहा -'यह सब मैंने भी सुना है।'
'तब क्या देवदास तुमको...?'
'क्या मुझको?'
मनोरमा ने हंसी दबाकर कहा- 'तब जान पड़ता है, स्वयंवर हुआ है! छिपे-छिपे सब बातचीत पक्की हो गयी है!'
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