उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
देवदास ने नींद की झोंक में सुना कि कोई उसे बुला रहा है। उसने उसी तरह लेटे हए बिना आंख खोले कहा-'हूं!'
'देव दादा!'
इस बार देवदास आँख मीचते हुए उठ बैठे। पार्वती के मुंह पर घूंघट नहीं था, घर में दीपक तीव्र ज्योति से जल रहा था, देवदास ने सहज ही पहचान लिया। किन्तु फिर भी उसे पहले विश्वास नहीं हुआ। पूछा-'यह क्या, पारो?' देवदास ने घड़ी की ओर देखा। विस्मय पर विस्मय बढ़ता गया-'इतनी रात में!'
पार्वती ने कोई उत्तर नहीं दिया। वह मुंह नीचे किये बैठे रही। देवदास ने फिर पूछा-'इतनी रात में क्या घर से अकेली आयी हो?'
पार्वती ने कहा-'हां।'
देवदास ने उद्विग्न, आशंकित और कलंकित होकर पूछा-'कहो, क्या रास्ते में डर भी नहीं मालूम हुआ?' पार्वती ने मीठी हंसी हंसकर कहा-'मुझे भूत का भय नहीं लगता।'
'भूत का भय नहीं करती, तो आदमी का भय तो करती हो; क्यों आयी?'
पार्वती ने कोई उत्तर नहीं दिया, किन्तु मन-ही-मन कहा कि इस समय मुझे उसका भी डर नहीं है।
'मकान में कैसे आईं? क्या किसी ने देखा नहीं?'
'दरबान ने देखा है।'
देवदास ने आँख फाड़कर देखा कहा- 'दरबान ने देखा'
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