उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
'और किसी ने? आंगन में नौकर लोग सो रहे थे, शायद उनमें से किसी ने देखा हो।'
देवदास ने बिछौना से कूदकर किवाड़ बंद कर दिये - 'किसी ने पहचाना भी?'
पार्वती ने कोई भी उत्कंठा प्रकट न की। सहज भाव से उत्तर दिया- 'वे सभी लोग मुझे जानते हैं, शायद किसी ने पहचाना हो।'
'क्या कहती हो? ऐसा काम क्यों किया, पारो?'
पार्वती ने मन ही मन कहा कि यह तुम किसी तरह समझ सकते हो? किंतु प्रकट में कुछ नहीं कहा- 'माथा नबाये बैठी रही।'
'इतनी रात में - छि:! छि! कल तुम कौन-सा मुंह दिखाओगी?'
पार्वती ने मुंह नीचे किए हुए ही कहा-'वह साहस मुझमें है।'
देवदास ने क्रोध नहीं किया, किंतु बड़ी उत्कंठा से कहा-'छि:! छि:! अब भी क्या तुम लड़की हो? यहां पर इस तरह आते हए क्या तुम्हें कुछ लज्जा मालूम नहीं हुई।'
पार्वती ने सिर हिलाकर कहा-'कुछ भी नहीं!'
'क्या लज्जा से तुम्हारा सिर नीचा न होगा?'
यह प्रश्न सुनकर पार्वती ने तीव्र किंतु करुण-दृष्टि से देवदास के मुख की ओर कुछ क्षण देखकर निस्संकोच होकर कहा-'सिर तो तब नीचा होता, अगर मैं यह अच्छी तरह से न जानती होती कि तुम मेरी सारी लज्जा को ढंक दोगे।'
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