उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
देवदास ने विस्मित एवं हतबुद्धि होकर कहा-'मैं! किंतु मैं कैसे मुंह दिखा सकूंगा?'
पार्वती ने उसी भांति अविचलित कंठ से कहा-'तुम? किंतु तुम्हारा क्या हो सकता है, देव दादा?' थोड़ी देर चुप रहने के बाद उसने फिर कहा-'तुम पुरुष हो! आज नहीं तो कल तुम्हारे कलंक की बात सब अवश्य भूल जायेंगे। दो दिन के बाद किसी को इसका ध्यान भी नहीं रहेगा कि कब, किस रात में हतभागिनी पार्वती सब-कुछ तुच्छ समझकर तुम्हारे पद-रज में लीन होने आई थी।'
'यह क्या पारो?'
'और मैं?'
'मंत्र-मुग्ध की भांति देवदास ने कहा- और तुम?'
'मेरे कलंक की बात कहते हो? नहीं, मुझे कलंक नहीं लगेगा। तुम्हारे पास मैं छिपे-छिपे आई, यदि यह कहकर मेरी निंदा होगी तो वह निंदा मुझे नहीं लग सकती।'
'यह क्या पारो, रोती हो?'
'देव दादा, नदी में इतना जल भरा हुआ है! क्या इतने जल में भी मेरा कलंक नहीं धुल सकता?'
सहसा देवदास ने पार्वती के दोनों हाथ पकड़ लिये और कहा-'पार्वती!'
पार्वती ने देवदास के पांव के ऊपर सिर रखकर अवरुद्ध कंठ से कहा-'यहीं पर थोड़ा सा स्थान दो, देव दादा!'
इसके बाद दोनों ही चुप रहे। देवदास के पांव पर से बहकर अनेकों अश्रुकण शुभ्र-शैया को भिगोने लगे। बहुत देर के बाद देवदास ने पार्वती के मुख को ऊपर उठाकर कहा-'पारो, क्या मुझे छोड़कर तम्हें और कोई उपाय नहीं है?'
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