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उपन्यास >> देवदास

देवदास

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :218
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9690

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कालजयी प्रेम कथा


पार्वती ने कुछ नहीं कहा। उसी भांति पांव पर सिर रखे हुए पड़ी रही। निस्तब्धता के भीतर एकमात्र वही लंबी-लंबी उसांसें भर रही थी। टन-टन करके घड़ी में दो बज गये। देवदास ने कहा-'पारो!'

पार्वती ने रुद्ध कंठ से कहा-'क्या?'

'पिता-माता बिलकुल सहमत नहीं हैं -यह सुना है?'

पार्वती ने सिर हिलाकर जवाब दिया-'सुना है।'

फिर दोनों चुप रहे। बहुत देर बाद देवदास ने दीर्घ निःश्वास फेंककर कहा-'तब फिर?'

पानी में डूबने से मनुष्य जिस प्रकार जमीन को पकड़ लेता है और फिर किसी भांति छोड़ना नहीं चाहता, ठीक उसी भांति पार्वती ने अज्ञानवत देवदास के दोनों पांवों को पकड़ रखा था। उसके मुख की ओर देखकर पार्वती ने कहा-'मैं कुछ नहीं जानना चाहती हूं, देव दादा!'

'पारो, माता-पिता की अवज्ञा करें?'

'दोष क्या है?'

'तब तुम कहां रहोगी।'

पार्वती ने रोते-रोते कहा-'तुम्हारे चरणों में।'

फिर दोनों व्यक्ति स्तब्ध बैठे रहे। घड़ी में चार बज गये। ग्रीष्मकाल की रात थी; थोड़ी ही देर में भोर होता हुआ जानकर देवदास ने पार्वती का हाथ पकड़ कर कहा-'चलो, तुम्हें घर पहुंचा आवें।'

'मेरे साथ चलोगे?'

'हानि क्या है? यदि बदनामी होगी तो कुछ उपाय भी निकल आयेगा।'
'तब चलो।' दोनों धीरे-धीरे बाहर चले गये।

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