उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
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दूसरे दिन पिता के साथ देवदास की थोड़ी देर के लिए कुछ बातचीत हुई। पिता ने उससे कहा-'तुम सदा से मुझे जलाते आ रहे हो जितने दिन इस संसार में जीवित रहूंगा उतने दिन यों ही जलाते रहोगे। तुम्हारे मुंह से ऐसी बात का निकलना कोई आश्चर्य नहीं है।' देवदास चुपचाप मुंह नीचे किए बैठे रहे।
पिता ने कहा-'मुझे इससे कोई संबंध नहीं है, जो इच्छा हो, तुम अपनी मां से मिलकर करो।'
देवदास की मां ने इस बात को सुनकर कहा-'अरे, क्या यह भी नौबत मुझे देखनी बदी थी?'
उसी दिन देवदास माल-असबाब बांधकर कलकत्ता चले गये। पार्वती उदासीन भाव से कुछ सूखी हंसी हंसकर चुप रही। पिछली रात की बात को उसने किसी से नहीं जताया। दिन चढ़ने पर मनोरमा आकर बैठी और कहा-'पारो, सुना है कि देवदास चले गये?'
'हां।'
'तब तुमने क्या सोचा है?'
उपाय की बात वह स्वयं नहीं जानती थी, फिर दूसरे से क्या कहेगी? आज कई दिनों से वह बराबर इसी बात को सोचती रहती है, किंतु किसी प्रकार यह स्थिर नहीं कर सकी कि उसकी आशा कितनी और निराशा कितनी है। जब मनुष्य ऐसे दुख के समय में आशा-निराशा का किनारा नहीं देखता, तो उसका दुर्बल हृदय बड़े भय से आशा का पल्ला पकड़ता है। जिसमें उसका मंगल रहता है, उसी बात की आशा करता है। इच्छा व अनिच्छा से उसी ओर नितांत उत्सुक नयन से देखता है। पार्वती को अपनी इस दशा में यह पूरी आशा थी कि कल रात को व्यापार के कारण वह निश्चय ही विफल-मनोरथ न होगी। विफल होने पर उसकी अवस्था क्या होगी, यह उसके ध्यान के बाहर की बात है। इसी से सोचती थी देवदास फिर आयेंगे। फिर मुझे बुलाकर कहेंगे - पारो, तुम्हें मैं शक्ति रहते किसी तरह दूसरे के हाथ न जाने दूंगा।
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