उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
देवदास अवाक् रह गये। पार्वती ने फिर कहना आरंभ किया- 'तुम क्या सोचते हो कि तुम मुझे हानि पहुँचाओगे? हां, अधिक नहीं, तो कुछ हानि अवश्य पहुंचा सकते हो, यह मैं जानती हूं। अच्छा वही करो। मुझे सिर्फ रास्ता दो।'
देवदास ने हत्बुद्धि होकर कहा- 'हानि किस तरह पहुंचा सकता हूं?'
पार्वती ने तत्क्षण उत्तर दिया- 'अपवाद लगाकर वह बात तुम कहोगे।'
यह बात सुनकर देवदास वज्रहत की तरह देखते रहे। उनके मुख से केवल यही बात निकली- 'अपवाद लगाऊंगा, मैं?'
पार्वती ने विषैली हंसी हंसकर कहा- 'जाओ, बचे हुए समय में मेरे नाम में कलंक लगाओ। उस रात में मैं तुम्हारे पास अकेली गयी थी, इसी बात को लेकर लोगों में चारों ओर फैलाओ। इससे मन को बड़ी सांत्वना मिलेगी।' यह कहते-कहते पार्वती के दर्पित क्रुद्ध होठ कांपते-कांपते स्थिर हो गये।
किन्तु देवदास के हृदय में क्रोध और अपमान से ज्वालामुखी पर्वत की भांति भीषण अग्नि सुलग रही थी। उन्होंने अव्यक्त स्वर से कहा - 'तुम क्या झूठी बदनामी उठाकर मैं सांत्वना पाऊंगा ?' - और उसी समय बंसी के मुठिये को घुमाकर पकड़कर भीषण कंठ से कहा- 'सुनो पार्वती, इतना रूपवान होना ठीक नहीं, अहंकार बहुत बढ़ जाता है।' यह कहकर तनिक धीरे स्वर से कहा- 'देखती नहीं हो, चन्द्रमा इतना सुन्दर है, इसी से उसमें कलंक का काला धब्बा लगा है। कमल कितना श्वेत है, इसीलिए उसमे काले भौंरे बैठते हैं। आओ, तुम्हारे मुंह में भी कुछ कलंक का चिन्ह दे दूं।' देवदास के सह्य की सीमा जाती रही। उन्होंने दृढ़ मुट्ठी से बंसी के मुठिये को पकड़कर इतने जोर से पार्वती के सिर में मारा कि लगने के साथ ही सिर बायीं भौं के नीचे तक फूट गया। पल भर में सारा मुख खून से सराबोर हो गया। पार्वती पृथ्वी पर गिर पड़ी। कहा- 'देव दादा, क्या किया?'
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