उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
देवदास ने बंसी टुकड़े-टुकड़े कर पानी में फेंक उत्तर दिया- 'अधिक कुछ नहीं जरा-सा कट गया है।'
पार्वती आकुल कंठ से रो उठी- 'बाप रे बाप, देव दादा!'
देवदास ने बारीक कुरते को फाड़कर पानी में भिगोकर बांधते हुए कहा- 'घबराओ नहीं पारो, यह हल्की-सी चोट जल्दी ही अच्छी हो जायेगी, सिर्फ दाग रह जायेगा। यदि कोई इसके विषय में पूछे तो झूठी बात कहना, नहीं तो अपने कलंक की बात प्रकट करना।'
'अरे बाप के बाप!'
'छि:! ऐसा न कहो पारो! विदाई के अंतिम दिनों में सिर्फ एक निशान बनाये रखने के लिए यह चिन्ह दे दिया है। इस सोने से मुख को तुम आरसी में कभी-कभी देखोगी तो?' यह कहकर उत्तर पाने की कोई अपेक्षा न कर देवदास चलने के लिए तैयार हुए।
पार्वती ने व्याकुल होकर रोते-रोते कहा- 'उफ! देव दादा!'
देवदास लौट आये। आँख के कोने में एक बिंदु जल था। बहुत स्नेह-भरे कंठ से कहा- 'क्यों, पारो?' 'किसी से कहना मत।'
देवदास ने क्षण-भर में ही खड़े होकर झुककर पार्वती के केशों को ऊपर उठाकर अधर स्पर्श कर कहा- 'छि:! तुम क्या कोई दूसरी हो? शायद तुम्हें याद न हो, बचपन में मैंने शरारत से कई बार तुम्हारे कान मल दिये हैं।'
'देव दादा, मुझे क्षमा करो।'
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