उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
'यह तुम्हें नहीं कहना होगा भाई, क्या सचमुच ही मुझे भूल गयी पारो? मैंने कब तुमको क्षमा नहीं किया है?'
'देव दादा...!'
'पार्वती, तुम तो जानती ही हो, मैं अधिक बातें नहीं कर सकता। बहुत सोच-विचार कर कोई काम मुझसे नहीं हो सकता, जो मन में आता है वही कर बैठता हूं।' यह कहकर देवदास ने पार्वती के सिर पर हाथ रखकर आर्शीर्वाद देते हए कहा- 'तुमने अच्छा ही किया। मेरे यहां रहकर सम्भवत: तुम सुख नहीं पातीं, किन्तु तुम्हारे इस देव दादा को अक्षय स्वर्ग सुख मिलता।'
इसी समय बांध की दूसरी ओर से आदमी आ रहे थे। पार्वती धीरे-धीरे जल लेने के लिए उतरी थी। देवदास चले गये। पार्वती जब घर लौटकर आयी, तो दिन ढल गया था। दादी ने उसे देखकर कहा- पारो, क्या पोखर खन के पानी लाती हो?'
किन्तु उसके मुंह की बात मुंह में ही रह गयी। पार्वती के मुंह की ओर देखते ही चिल्ला उठी- 'बाप रे बाप, यह क्या हुआ?' घाव से अब भी खून बह रहा था। कपड़े का टुकडा प्राय: खून से तर हो गया था। रोते-रोते कहा- 'बाप रे बाप, तेरा ब्याह है पारो!'
पारो ने सहज भाव से उत्तर दिया- 'घाट पर पांव फिसल जाने से सिर के बल ईटों पर गिर पड़ी थी, जिससे कुछ चोट आ गयी।'
इसके बाद सब मिलकर सुश्रूषा करने लगे। देवदास ने सच कहा था- 'आघात अधिक नहीं है।'
चार-पांच दिनों में ही वह सूख गया। इसी भांति आठ-दस दिन बीत गये।
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