उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
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फिर एक दिन रात के समय हाथीपोता गांव के जमीदार भुवनमोहन चौधरी वर बनकर विवाह करने के लिए आये। उत्सव बहुत तड़क-भड़क के साथ नहीं मनाया गया। भुवन बाबू नासमझ आदमी नहीं थे- इस प्रोढ़ावस्था में दूसरा विवाह करने के समय छोकरा बनकर आना ठीक नहीं।
वर की उम्र चालीस वर्ष नहीं, कुछ ऊपर ही है, गौरवर्ण और मोटा-सा थुलथुल शरीर है। कच्ची- पक्की मूंछे मिलाकर खिचड़ी हो रही थीं और सिर का अगला भाग सफाचट हो रहा था। वर को देखकर कोई हंसा और कोई चुप ही रहा। भुवन बाबू शांत गंभीर मुख से किसी अपराधी की भांति विवाह मंडप में आकर खड़े हुए। कोहबर में स्त्रियों ने उनके साथ हंसी-मजाक नहीं किया। कारण, ऐसे विज्ञ, गंभीर मनुष्य के साथ हंसी करने का किसी को साहस नहीं हुआ। शुभ-दृष्टि के समय पार्वती किचकिचा-किचकिचाकर देखती रही। होठ कोण में थोड़ी हंसी की रेखा भी थी। भुवन बाबू ने छोटे बच्चों की तरह दृष्टि नीची कर ली। गांव की स्त्रियां खिलखिलाकर हंस रही थीं। चक्रवर्ती महाशय इधर-उधर दौड़-धूप कर रहे थे। प्रवीण जमाता को पाकर वे कुछ व्यस्त से हो उठे। जमीदार नारायण मुखोपाध्याय आज कन्या-पक्ष के सब कर्ता-धर्ता थे। वे पक्के-प्रबंधकर्ता थे। किसी भी तरह की त्रुटि नहीं होने पायी। शुभ कर्म भली-भांति समाप्त हो गया।
दूसरे दिन प्रातःकाल चौधरी महाशय ने एक बाक्स गहना बाहर निकालकर रख दिया। ये सब गहने पार्वती के शरीर में जगमगा उठे। माता ने उसे देख आँचल से आँख का आँसू पोछा। पास ही जमीदारिन खड़ी थीं, उन्होंने सस्नेह तिरस्कार करके कहा- 'आज आँख का आंसू बहाकर अशुभ न करो!'
संध्या के कुछ पहले मनोरमा ने पार्वती को एक निर्जन घर में ले जाकर आर्शीवाद दिया। कहा- 'जो हुआ, अच्छा ही हुआ, अब देखोगी कि तुम पहले से कितनी सुखी हो।'
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