उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
पार्वती ने थोड़ा हसंकर कहा- 'हां होऊंगी। उन के साथ-साथ कल थोड़ा परिचय हुआ है न!'
'यह कैसी बात?'
'समय पर सब देख लोगी।' मनोरमा ने बात को दूसरी ओर घुमाकर कहा- 'यदि तुम्हारी इच्छा हो तो एक बार देवदास को इस सोने की प्रतिमा को लाकर दिखाऊं?'
पार्वती चमक उठी- 'ला सकती हो बहिन! क्या एक बार बुलाकर नहीं ला सकती?'
मनोरमा का कंठ स्वर सिहर उठा- 'क्यों पारो?'
पार्वती ने हाथ का कड़ा घुमाते-घुमाते अन्यमनस्क भाव से कहा- 'एक बार उसके पांव की धूल को सिर पर चढाऊंगी, आज जाऊंगी न!'
मनोरमा ने पार्वती को छाती से लगा लिया फिर दोनों बहुत देर तक रोती रहीं। संध्या हो गयी, अंधकार बढ़ गया। दादी ने द्वार ठेलकर बाहर से ही कहा- 'ओ पारो, ओ मनो, तुम लोग जरा बाहर आना बहिन!' उसी रात पार्वती स्वामी के घर चली गयी।
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