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उपन्यास >> देवदास

देवदास

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :218
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9690

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कालजयी प्रेम कथा

14

और देवदास?

उन्होंने उस दिन कलकत्ता के ईडन गार्डन की एक बेंच पर बैठे-बैठे सारी रात बिता दी। उन्हें अत्यंत क्लेश अथवा मार्मिक वेदना हुई हो, यह बात नहीं है। उनके हृदय में न जाने कैसा एक शिथिल-उदासीन भाव धीरे-धीरे जमा हो रहा था। निद्रित अवस्था में हठात् शरीर के किसी एक अंग में पक्षपात हो जाने से नींद टूटने पर जैसे उसके ऊपर ढूंढने पर भी अपना कोई अधिकार नहीं पाने से विस्मित और स्तम्भित मन को ठीक नहीं कर पाते, क्योंकि उसका आजन्म का साथी, सर्वदा का विश्वासी अंग उसके आह्वान का कोई प्रत्युत्तर नहीं देता; धीरे-धीरे समझ आती है और धीरे-धीरे ज्ञान उत्पन्न होता है कि अब उस पर अपना कोई अधिकार नहीं है। देवदास भी ठीक उसी भांति धीरे-धीरे समझ रहे थे कि समय और संसार में अकस्मात पक्षाघात होने से वे उनसे सर्वदा के लिए विलग हो गये। अब उनके ऊपर मिथ्या, क्रोध और अभिमान करके कुछ नहीं किया जा सकता। अधिक अधिकार की बात सोचने से भी भारी भूल होगी। उस समय सूर्योदय हो रहा था। देवदास ने खड़े होकर सोचा, कहा चलूं? हठात स्मरण हुआ कि कलकत्ता के उसी मैस में, वहां पर चुन्नीलाल है। देवदास उसी ओर चलने लगे। रास्ते मे दो बार धक्का खाया, ठोकर खाने से अंगुली लहू-लुहान हो गयी। धक्का लगने से एक आदमी के शरीर पर गिर रहे थे, उसने मतवाला कहकर ढकेल दिया। इसी भांति भटकते-भटकते संध्या के समय मैस के दरवाजे पर आकर खड़े हए। उस समय चुन्नीलाल सज-धजकर बाहर जा रहे थे - 'यह क्या, देवदास?' देवदास चुपचाप देखते रहे।

'कब आये? मुंह सूखा हुआ हुआ है। नहाना खाना क्या अब तक कुछ नहीं हुआ?' देवदास रास्ते में ही बैठ गये। चुन्नीलाल हाथ पकड़कर भीतर ले गये। अपनी शैया पर बैठकर शांत करके पूछा- 'क्या मामला है देवदास?'

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