उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
'क्यों रोती है?'
'बिना किसी से कहे-सुने एकाएक चले आये।' एक पत्र बाहर निकालकर हाथ में देकर कहा- 'मां की चिट्ठी है।' चुन्नीलाल भीतर-ही-भीतर खबर जानने के लिए उत्सुक भाव से देख रहे थे। देवदास ने पत्र पढ़कर रख दिया। मां ने घर पर आने के लिए बड़े अनुरोध के साथ बुलाया है। घर में ही वे केवल देवदास के मानसिक कष्ट का कुछ-कुछ अनुमान कर सकी थीं। धर्मदास के हाथ छिपाकर बहुत सा रुपया भी भेज दिया था। धर्मदास ने वह सब देवदास के हाथ में देकर कहा- 'देवदास, घर चलो।'
'मैं नहीं जाऊंगा। तुम लौट जाओ!'
रात में दोनों मित्र सज-धज के बाहर निकले। देवदास की इन सबकी ओर प्रवृत्ति नहीं थी; किंतु चुन्नीलाल साधारण पोषाक पहनकर बाहर चलने को राजी नहीं हुए। रात के नौ के समय एक किराये की गाड़ी चितपुर के एक दो तल्ले मकान के सामने आकर खड़ी हुई। चुन्नीलाल देवदास का हाथ पकड़े हुए भीतर चले गये। गृहस्वामी का नाम चन्द्रस्वामी है - उन्होंने आकर अभ्यर्थना की। इस समय देवदास का सारा शरीर जल उठा। वे इधर कई दिनों से अपनी अज्ञानता में नारी-देह की छाया के ऊपर भी विद्वेष करने लगे थे, यह सब वह स्वयं नहीं जानते थे। चन्द्रमुखी को देखते ही हृदय की संचित घृणा दावानल की भांति प्रज्ज्वलित हो उठी। चुन्नीलाल के मुख की ओर देखकर भौं चढ़ाकर कहा- 'चुन्नीलाल, यह किस मनहूस जगह में ले आये?'
उनके तीव्र कंठ और आँख की दृष्टि देखकर चन्द्रमुखी और चुन्नीलाल दोनों ही हत्बुद्धि से हो गये। दूसरे ही क्षण चुन्नीलाल ने अपने को संभालकर देवदास का एक हाथ पकड़कर कोमल कंठ से कहा- 'चलिये, भीतर चलकर बैठिये।'
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