उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
'पहले से अच्छी जान पड़ती है। अच्छा चुन्नी बाबू, रात में तुम कहां जाते हो?'
आज चुन्नीलाल ने लज्जित होकर कहा- 'हां, मैं जाता हूं, पर उसकी कौन बात है?' अच्छा, आज कॉलेज जाओगे न?'
'नहीं, लिखना-पढ़ना छोड़ दिया।'
'छि:! ऐसा भी हो सकता है, दो महीने बाद तुम्हारी परीक्षा होगी! पढ़ना भी तुम्हारा नहीं है। इस साल परीक्षा दो न!'
'नहीं, पढ़ना छोड़ दिया।'
चुन्नीलाल चुप ही रहे। देवदास ने फिर पूछा- 'कहां? चुन्नीलाल ने देवदास के मुंह की ओर देखकर कहा- 'उसे जानकर क्या करोगे, मैं कुछ अच्छी जगह नहीं जाता।'
देवदास ने अपने मन-ही-मन में कहा- 'अच्छी हो या बुरी इससे क्या मतलब- 'चुन्नी बाबू, मुझे साथ ले चलोगे या नहीं।'
'ले चल सकता हूं, किन्तु मत चलो।'
'नहीं, मैं चलूंगा। अगर अच्छा नहीं लगेगा, तो मैं फिर नहीं जाऊंगा। पर तुम जिस सुख की आशा से नित्य उन्मुख रहते हो...। जो हो चुन्नीबाबू, मैं निश्चित चलूंगा।' चुन्नीलाल ने मुंह फेर कुछ हंस के मन-ही-मन कहा- 'मेरी दशा! प्रकट में कहा- 'अच्छा, चलना।'
संध्या के कुछ पहले ही धर्मदास चीज-वस्तु आ पहुंचा। देवदास को देखकर रोते-रोते कहा- 'देवदास आज तीन-चार दिन हुए मां कितना रो रही है।'
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