उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
देवदास ने कुछ देर तक उनके मुंह की ओर देखकर कहा- 'चुन्नीलाल बाबू, मेरे पास कुछ नहीं है, क्या तुम मुझे आश्रय दोगे?' चुन्नीलाल कुछ हंसे। वे जानते थे कि देवदास के पिता बड़े धनवान व्यक्ति हैं। इसी से हंसकर कहा- 'मैं आश्रय दूंगा? अच्छी बात है, तुम्हारी जितने दिन इच्छा हो, यहां पर रहो, कोई चिन्ता नहीं।'
'चुन्नीबाबू, तुम्हारी आमदनी कितनी है?'
'भाई, मेरी आमदनी मामूली है। मकान पर कुछ जमीदारी है। उसे भाई साहब को सौंपकर मैं यहां रहता हूं। वे हर महीने सत्तर रुपये के हिसाब से भेज देते हैं। इतने में तुम्हारा और मेरा खर्च अच्छी तरह से चल जायेगा।'
'तुम मकान क्यों नहीं जाते?'
चुन्नीलाल ने उधर मुंह फिराकर कहा- 'बहुत सी बातें हैं।'
देवदास ने और कुछ नहीं पूछा। धीरे-धीरे भोजन आदि की बुलाहट आई। इसके बाद दोनों भोजनादि समाप्त करके फिर धर में आकर बैठे। चुन्नीलाल ने पूछा- 'देवदास क्या बाप के साथ कुछ झगड़ा हो गया है।'
'नहीं।'
'और किसी के साथ?'
देवदास ने उसी भांति जवाब दिया- 'नहीं।' इसके बाद चुन्नीलाल को सहसा दूसरी बात का स्मरण आया। कहा- 'ओहो, तुम्हारा तो अभी ब्याह नहीं हुआ है!'
इसी समय देवदास दूसरी ओर मुंह फेरकर सो रहे। थोड़ी ही देर में चुन्नीलाल ने देखा कि देवदास सो गये। इसी भांति सोते-सोते और भी दो दिन बीत गये। तीसरे दिन प्रात:काल देवदास स्वस्थ होकर बैठे थे। मुख से ऐसा जान पड़ता था मानो वह घनी छाया बहुत कुछ हट गई हो। चुन्नीलाल ने पूछा- 'आज तबीयत कैसी है?'
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