उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
'मेरे ही साथ।'
'एक दिन उन्हें और ला सकते हो?'
'यह मैं नहीं कर सकता। इसके पहले वे किसी ऐसी जगह पर नहीं गये थे और भविष्य में भी अब किसी ऐसी जगह पर जाने की उम्मीद नहीं है। किन्तु क्यों, यह तो बताओ?'
चन्द्रमुखी ने एक मलिन हंसी हंसकर कहा- 'चुन्नी, चाहे जैसे हो, एक बार उन्हें और लिवा लाओ।' चुन्नी ने मुस्करा तथा आंखें मारकर कहा- 'धमकी पाने से कहीं प्रेम उत्पन्न हुआ है क्या?'
चन्द्रमुखी भी मुस्करायी, कहा- 'नहीं देखा, नोट दे गये हैं, इतना भी नहीं समझते!'
चुन्नी चन्द्रमुखी को कुछ पहचानते थे, सिर हिलाकर कहा- 'नहीं-नहीं नोट वाली दूसरी होती है, तुम वैसी नहीं हो। सच बात कहो, क्या है?'
चन्द्रमुखी ने कहा- 'सच बात तो यह है कि उनकी ओर कुछ मन का खिंचाव हो रहा है।'
चुन्नी ने विश्वास नहीं किया। हंसकर कहा-'इतनी देर में?'
इस बार चन्द्रमुखी भी हंस पडी। कहा- 'यह होने दो। चित्त स्वस्थ होने पर एक बार और लिवा लाना, फिर एक बार देखूंगी। लिवा लाओगे न?'
'कह नहीं सकता।'
'मेरे सिर की सौगंध है।'
'अच्छा, कोशिश करूंगा।'
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