उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
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पार्वती ने आकर देखा, उसके स्वामी की बहुत बड़ी हवेली है। नये साहिबी फैशन की नहीं, पुराने ढंग की है। सदर-महल, अन्दर-महल, पूजा का दालान, नाट्य-मंदिर, अतिथिशाला, कचहरी घर तोशाखाना और अनेक दास-दासियों को देखकर पार्वती अवाक् रह गयी। उसने सुना था कि उसके स्वामी बड़े आदमी और जमीदार हैं। किंतु इतना नहीं सोचा था। अभाव केवल आदमियों का था, अर्थात् आत्मीय कुटुम्ब-कुटुम्बिनी प्राय: कोई नहीं है। इतना बड़ा अन्तःपुर जन-शून्य था। पार्वती नववधू है, किन्तु एकदम गृहिणी हो बैठी। परछन करके घर में लाने के लिए केवल एक बूढ़ी फूफी थी, इन्हें छोड़ सब दास-दासियों का दल था। संध्या के कुछ पहले एक सुन्दर सकान्तिवान बीस वर्षीय नव युवक ने प्रणाम करके पार्वती के निकट खड़े होकर कहा - 'मां, मैं बड़ा लड़का हूं।'
पार्वती ने घूंघट के भीतर से ही देखा, कुछ कहा नहीं। उसने फिर एक बार प्रणाम करके कहा- 'मां, मैं आपका बड़ा लड़का हूं, प्रणाम करता हूं।'
पार्वती ने लंबे घूंघट को सिर पर उठा, मृदु कंठ से कहा- 'यहां आओ भाई, यहां आओ।'
लड़के का नाम महेन्द्र है। वह कुछ देरी तक पार्वती के मुख की ओर अवाक् होकर देखता रहा; फिर पास में बैठकर विनीत स्वर में कहा- 'आज दो वर्ष हुए मेरी मां का स्वर्गवास हो गया। इन दो वर्षों का समय हम लोगों का बड़े दुख और कष्ट से बीता है। आज तुम आयी हो, आर्शीवाद दो कि अब हम लोग सुख से रहें।'
पार्वती खुलकर सरल भाव से बातचीत करने लगी। क्योंकि एकबारगी गृहिणी होने से कितनी ही बातों को जानने और कितनी ही बार लोगों से बातचीत करने की जरूरत पड़ती है। किंतु यह कहना कितने ही लोगों को कुछ अस्वाभाविक जंचेगा, पर जिन्होंने पार्वती के स्वभाव को अच्छी तरह से समझा है, वे देखेंगे कि अवस्था के इन अनेक परिवर्तनों ने उनकी उम्र की अपेक्षा उसे कहीं अधिक परिपक्र्व बना दिया है। इसके अतिरिक्त निरर्थक लोक-लज्जा, अकारण जड़ता, संकोच उसमें कभी नहीं था। उसने पूछा- 'हमारे और सब लडके कहां है?'
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