उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
महेन्द्र ने जरा हंसकर कहा- 'तुम्हारी बड़ी लड़की-मेरी छोटी बहिन-अपनी ससुराल में है, मैंने उसके पास चिट्ठी लिखी थी, पर यशोदा किसी कारणवश नहीं आ सकी।'
पार्वती ने दुखित होकर पूछा- 'आ नहीं सकी या स्वयं इच्छा से नहीं आयी?'
महेन्द्र ने लज्जित होकर कहा- 'ठीक नहीं जानता, मां!'
किन्तु उसकी बात बात और मुख के भाव से पार्वती समझ गयी कि यशोदा क्रोध के कारण नहीं आयी है; कहां- 'और हमारा छोड़ा लड़का?'
महेन्द्र ने कहा- 'वह बहुत जल्दी आयेगा, कलकत्ता में परीक्षा देकर आयेगा।'
चौधरी महाशय स्वयं ही जमीदारी का काम देखते थे। इसे छोड़ वे नित्य शालिग्राम की बटिया की अपने हाथ से पूजा करते थे; अतिथिशाला में जाकर साधु संन्यासियों की सेवा करते थे। इन सब कामों में उनका सुबह से लेकर रात के दस-ग्यारह बजे तक का समय लग जाता था। नवीन विवाह के करने से किसी नवीन आमोद-प्रमोद के चिन्ह उनमें नहीं दिखायी पड़ते थे। रात में किसी दिन भीतर आते और किसी दिन नहीं आ सकते थे। आते भी तो बहुत मामूली बातचीत होती थी। चारपाई पर सोकर एक गावतकिया लगाकर आंख मूंदते-मूंदते यदि बहुत कहते तो केवल यही कि 'देखो, तुम्हीं घर की मालकिन हो, सब अच्छी तरह से देख-सुन के और समझ-बूझ के काम करना।'
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