उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
पार्वती सिर हिलाकर कहती- 'अच्छा!'
भुवन बाबू कहते- 'और देखो, ये लडकी-लडके... हां, ये सब तो तुम्हारे ही है।'
स्वामी की लज्जा को देखकर पार्वती की आंख के कोने से हंसी फूट निकलती थी। वे भी थोड़ा हंसकर कहते -'हां, और देखो, यह महेंद्र तुम्हारा बड़ा लड़का है। अभी उस दिन बी.ए. पास हुआ है। इसके समान अच्छा लडका-इसके समान मोहब्बती- अहा इस...!'
पार्वती हंसी दबाकर कहती-'मैं जानती हूं, यह मेरा बड़ा लड़का है।'
'यह तुम क्यों जानोगी। ऐसा लड़का कहीं भी नहीं देखने में आया। और मेरी यशोमती लड़की नहीं, एकदम लक्ष्मी की प्रतिमा है। वह अवश्य आयेगी-क्या बूढ़े बाप को देखने नहीं आयेगी? उसके आने से.....।' पार्वती निकट आकर गंजे सिर पर अपने कमलवत कोमल हाथ को रखकर मृदु स्वर से कहती- 'तुमको इसकी चिंता नहीं करनी होगी। यशोदा को बुलाने के लिए मैं आदमी भेजूंगी, नहीं तो महेंद्र खुद ही जायेगा।'
'जायेगा! जायेगा! अच्छा, बहुत दिन बिना देखे हुए। तुम आदमी भेजोगी?'
'जरूर भेजूंगी। मेरी लड़की है मैं बुलवाऊंगी नहीं?' वृद्ध इस समय उत्साहित हो उठ बैठते। परस्पर के संबंध को भूलकर पार्वती के सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद देते और कहते -'तुम्हारा कल्याण हो! मैं आशीर्वाद देता हूं, तुम सुखी हो, भगवान तुम्हें दीर्घायु करे!' इसके बाद सहसा न जाने कौन-कौन सी बातें वृद्ध के मन में उठने लगती थीं। फिर चारपाई पर आंखें मूंदकर मन-ही-मन कहते - 'आह! वह मुझे बहुत प्यार करती थी।'
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