उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
इसी समय कच्ची मूंछों के पास से बहकर एक बूंद आंख का आंसू तकिये पर गिर पड़ता। पार्वती पोंछ देती थी। कभी-कभी वे भीतर-ही-भीतर कहते - 'अहा! उन सभी लोगों के आ जाने से एक बार फिर घर-द्वार जगमगा उठेगा... अहा! पहले कैसी चहल-पहल रहती थी। लड़का-लड़की, घर में सब कोई थे, नित्य दुर्गोत्सव का आनंद रहता। फिर एक दिन सबका अंत हो गया। लड़के कलकत्ता चले गये, यशो को उसके ससुर ले गये, फिर अंधकार श्मशान....।' इसी समय फिर मूंछों के दोनों ओर से आंसू बह-बहकर तकिये को भिगोने लगे। पार्वती कातर होकर आंसू पोछते-पोछते कहने लगी-'महेंद्र का क्यों नहीं विवाह किया?'
बूढ़े कहते - 'अहा, वह मेरे कैसे सुख का दिन होता! यही तो सोचता था। किंतु उसके मन की बात कौन जाने? उसकी जिद को कौन तोड़े? किसी तरह से ब्याह नहीं किया। इसीलिए तो बुढापे में.. सारा घर भांय-भांय करता था, सारा घर दुखित था, लक्ष्मी को छोड़ दरिद्र का वास होने लगा था; कोई घर में चिराग जलाने वाला नहीं रहा। यह सब देखा नहीं जाता था इसीलिए तो...।'
यह बात सुन पार्वती बड़ी दुखी होती। करुण-स्वर से, हंसी के साथ सिर हिलाकर कहती-'तुम्हारे बूढ़े होने से मैं शीघ्र ही बूढ़ी हो जाऊंगी। स्त्रियों को बूढी होने में क्या देरी लगती है?'
भुवन चौधरीजी उठकर बैठते; एक हाथ उसके चिबुक पर रखकर निःशब्द उसके मुख की ओर बहुत देर तक देखते रहते। जिस तरह कारीगर अपनी प्रतिमा को सजाकर सिर में मुकट पहनाकर दाहिने-बाएं घुमाकर बहुत देर तक देखता रहता है फिर थोड़ा गर्व और अधिक स्नेह का भाव उत्पन्न होता है। ठीक उसी भांति भुवन बाबू को भी होता है। किसी दिन उनके अस्फुट मुख से बाहर निकल पड़ता-'आहा! अच्छा नहीं किया।'
'क्या अच्छा नहीं किया?'
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