धर्म एवं दर्शन >> गायत्री और यज्ञोपवीत गायत्री और यज्ञोपवीतश्रीराम शर्मा आचार्य
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यज्ञोपवीत का भारतीय धर्म में सर्वोपरि स्थान है।
मल-मूत्र के त्यागने में
कान पर जनेऊ चढ़ाने में भूल होने का अक्सर भय रहता है। कई आदमी इसी डर की
वजह से यज्ञोपवीत नहीं पहनते या पहनना छोड़ देते हैं। यह ठीक है कि इस नियम
का कठोरता से पालन होना चाहिए पर यह भी ठीक है कि आरम्भ में इसकी आदत न पड़
जाने तक नौसिखियों को कुछ सुविधा भी मिलनी चाहिए जिससे कि उन्हें एक दिन
में तीन-तीन जनेऊ बदलने के लिए विवश न होना पड़े। इसके लिए ऐसा करने से वह
कमर से ऊँचा आ जाता है। कान में चढ़ाने का प्रधान प्रयोजन यह है कि
मल-मूत्र की अशुद्धता का यज्ञ सूत्र से, स्पर्श न हो, जब जनेऊ कंठ में
लपेट दिये जाने से कमर से ऊंचा उठ आता है, तो उससे अशुद्धता का स्पर्श
होने की आशंका नहीं रहती और यदि कभी कान में चढ़ाने की भूल भी हो जाय तो
उसके बदलने की आवश्यकता नहीं होती। थोड़े दिनों में जब भली प्रकार आदत पड़
जाती है तो फिर कंठ में लपेटने की आवश्यकता नहीं रहती।
छोटी आयु वाले बालकों के
लिए तथा अन्य भुलक्कड़ व्यक्तियों के लिए तृतीयांश यज्ञोपवीत की व्यवस्था
की जा सकती है। पूरे यज्ञोपवीत की अपेक्षा दो तिहाई छोटा अर्थात् एक तिहाई
लम्बाई का तीन लड़ वाला उपवीत केवल कण्ठ में धारण कराया जा सकता है। इस
प्रकार के उपवीत को आचार्यों ने 'कण्ठी' शब्द से सम्बोधित किया है। छोटे
बालकों का जब उपनयन होता था तब उन्हें दीक्षा के साथ कण्ठी पहना दी जाती
थी। आज भी गुरु नामधारी पण्डित गले में कण्ठी पहनाकर और कान में मन्त्र
सुनाकर गुरु-दीक्षा देते हैं।
इस प्रकार अविकसित
व्यक्ति उपवीत की नित्य सफाई का भी पूरा ध्यान रखने में प्राय: भूल करते
हंा जिससे शरीर का पसीना उसमें रमता है, फलस्वरूप बदबू, गन्दगी, मैल और
रोग-कीटाणु उसमें पलने लगते हैं। ऐसी स्थिति में यह सोचना पड़ता है कि कोई
ऐसा उपाय निकल आए जिससे कण्ठ में पड़ी हुई उपवीत-कण्ठी का शरीर से कम
स्पर्श हो। इस निमित्त तुलसी, रुद्राक्ष या, किसी और पवित्र वस्तु के
दानों को कण्ठी के सूत्रों में पिरो दिया जाता है, फलस्वरूप वे दाने ही
शरीर का स्पर्श कर पाते हैं। सूत्र अलग रह जाता है और पसीने का जमाव होने
एवं शुद्धि में प्रमाद होने के खतरे से बचत हो जाती है, इसीलिए दाने वाली
कण्ठियाँ पहनने का रिवाज चलाया गया।
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