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धर्म एवं दर्शन >> हनुमान बाहुक

हनुमान बाहुक

गोस्वामी तुलसीदास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :51
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9697

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सभी कष्टों की पीड़ा से निवारण का मूल मंत्र


। 18 ।

सिंधु तरे, बड़े बीर दले खल,
जारे हैं लंकसे बंक मवा से ।
तैं रन-केहरि केहरिके
बिदले अरि-कुंजर छैल छवा से ।।

तोसों समत्थ सुसाहेब सेइ
सहै तुलसी दुख दोष दवासे ।
बानर बाज बढ़े खल-खेचर,
लीजत क्यों न लपेटि लवा-से ।।

भावार्थ - आपने समुद्र लाँघकर बड़े-बड़े दुष्ट राक्षसों का विनाश करके लंका-जैसे विकट गढ़ को जलाया। हे संग्रामरूपी वनके सिंह! राक्षस शत्रु बने-ठने हाथी के बच्चे के समान थे, आपने उनको सिंह की भांति विनष्ट कर डाला। आपके बराबर समर्थ और अच्छे स्वामी की सेवा करते हुए तुलसी दोष और दुःख की आग को सहन करे (यह आश्चर्यकी बात है)। हे वानररूपी बाज! बहुत-से दुष्टजनरूपी पक्षी बढ़ गये हैं, उनको आप बटेर के समान क्यों नहीं लपेट लेते? ।। 18 ।।

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