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कामायनी

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :177
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9700

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अग्निहोत्र-अवशिष्ट अन्न कुछ कहीं दूर रख आते थे,
होगा इससे तृप्त अपरिचित समझ सहज सुख पाते थे।

दुख का गहन पाठ पढ़कर अब सहानुभूति समझते थे,
नीरवता की गहराई में मग्न अकेले रहते थे।

मनन किया करते वे बैठे ज्वलित अग्नि के पास वहां,
एक सजीव, तपस्या जैसे पतझड़ में कर वास रहा।  

फिर भी धड़कन कभी हृदय में होती चिंता कभी नवीन,
यों ही लगा बीतने उनका जीवन अस्थिर दिन-दिन दीन।

प्रश्न उपस्थित नित्य नये थे अंधकार की माया में,
रंग बदलते जो पल-पल में उस विराट् की छाया में!

अर्ध प्रस्कुटित उत्तर मिलते प्रकृति सकर्मक रही समस्त,
निज अस्तित्व बना रखने में जीवन आज हुआ था व्यस्त।

तप में निरत हुए मनु, नियमित-कर्म लगे अपना करने,
विश्वरंग में कर्मजाल के सूत्र लगे घन हो घिरने।

उस एकान्त नियति-शासन में चले विवश धीरे-धीरे,
एक शांत स्पंदन लहरों का होता ज्यों सागर-तीरे।

विजन जगत की तंद्रा में तब चलता था सूना सपना,
ग्रह-पथ के आलोक-वृत्त से काल जाल तनता अपना।

प्रहर, दिवस, रजनी आती थी चल आती संदेश-विहीन,
एक विरागपूर्ण संसृति में ज्यों निष्फल आरम्भ नवीन।

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