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कामायनी

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :177
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9700

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धवल, मनोहर चंद्रबिंब से अंकित सुन्दर स्वच्छ निशीथ,
जिसमें शीतल पवन गा रहा पुलकित हो पावन उद्गीथ।

नीचे दूर-दूर विस्तृत था उर्मिल सागर व्यथित, अधीर,
अंतरिक्ष में व्यस्त उसी-सा रहा चंद्रिका-निधि गंभीर।

खुली उसी रमणीय दृश्य में अलस चेतना की आंखें,
हृदय-कुसुम की खिली अचानक मधु से वे भीगी पाँखें।

व्यक्त नील में चल प्रकाश का कंपन सुख बन बजता था,
एक अतींद्रिय स्वप्न-लोक का मधुर रहस्य उलझता था।

नव हो जगी अनादि वासना मधुर प्राकृतिक भूख-समान,
चिर-परिचित-सा चाह रहा था द्वन्द सुखद करके अनुमान।

दिवा रात्रि या-मित्र वरूण की बाला का अक्षय श्रृंगार,
मिलन लगा हंसने जीवन के उर्मिल सागर के उस पार।

तप से संयम का संचित बल, तृषित और व्याकुल था आज-
अट्टहास कर उठा रिक्त का वह अधीर-तम-सूना राज।

धीर-समीर-परस से पुलकित विकल हो चला श्रांत-शरीर,
आशा की उलझी अलकों से उठी लहर मधुगंध अधीर।

मनु का मन था विकल हो उठा संवेदन से खाकर चोट,
संवेदन! जीवन जगती को जो कटुता से देता घोंट।

''आह! कल्पना का सुंदर यह जगत मधुर कितना होता!
सुख-स्वप्नों का दल छाया में पुलकित हो जगता-सोता।

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