लोगों की राय

कविता संग्रह >> कामायनी

कामायनी

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :177
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9700

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

92 पाठक हैं


हे अभाव की चपल बालिके, री ललाट की खललेखा,
हरी-भरी-सी दौड़-धूप, ओ जल-माया की चल-रेखा।

इस ग्रहकक्षा की हलचल-री तरल गरल लघु-लहरी,
जरा अमर-जीवन की, और न कुछ सुनने वाली, बहरी।

अरी व्याधि की सूत्र-धारिणी-अरी आधि, मधुमय अभिशाप,
हृदय-गगन में धूमकेतु-सी, पुण्ड-सृष्टि में सुन्दर पाप।

मनन करावेगी तू कितना? उस निश्चित जाति का जीव-
अमर मरेगा क्या? तू कितनी गहरी डाल रही है नींव।

आह! घिरेगी हृदय-लहलहे-खेतों पर करका-घन-सी,
छिपी रहेगी अंतरतम में सब के तू निगूढ़ धन-सी।

बुद्धि, मनीषा, मति, आशा, चिंता तेरे हैं कितने नाम!
अरी पाप है तू, जा, चल जा यहां नहीं कुछ तेरा काम।

विस्मृत आ, अवसाद घेर ले, नीरवते! बस चुप कर दे,
चेतनता चल जा, जड़ता से आज शून्य मेरा भर दे।''

''चिंता करता हूं मैं जितनी उस अतीत की, उस सुख की,
उतनी ही अनन्त में बनती जातीं रेखायें दुख की।

आह सर्ग के अग्रदूत! तुम असफल हुए, विलीन हुए,
भक्षक या रक्षक जो समझो, केवल अपने मीन हुए।

अरी आंधियो! ओ बिजली की दिवा-रात्रि तेरा नर्तन,
उसी वासना की उपासना, वह तेरा प्रत्यावर्त्तन।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book