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कामायनी

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :177
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9700

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मणि-दीपों के अंधकारमय अरे निराशा पूर्ण भविष्य!
देव-दंभ के महामेघ में सब कुछ ही बन गया हविष्य।

अरे अमरता के चमकीले पुतलो! तेरे वे जयनाद–
कांप रहे हैं आज प्रतिध्वनि बन कर मानो दीन विषाद।

प्रकृति रही दुर्जेय, पराजित हम सब थे भूले मद में
भोले थे, हाँ तिरते केवल सब विलासिता के नद में।

वे सब डूबे, डूबा उनका विभव, बन गया पारावार–
उमड़ रहा था देव-सुखों पर दुख-जलाधि का नाद अपार।''

''वह उन्मत्त विलास हुआ क्या! स्वप्न रहा या छलना थी!
देवसृष्टि की सुख-विभावरी ताराओं की कलना थी।

चलते थे सुरभित अंचल से जीवन के मधुमय निश्वास,
कोलाहल में मुखरित होता देव जाति का सुख-विश्वास।

सुख, केवल सुख का वह संग्रह, केंद्रीभूत हुआ इतना,
छायापथ में नव तुषार का सघन मिलन होता जितना।

सब कुछ थे स्वायत्त, विश्व के - बल, वैभव, आनंद अपार,
उद्वेलित, लहरों-सा होता उस समृद्धि का सुख-संचार।

कीर्त्ति, दीप्ति, शोभा थी नचती अरुण-किरणों-सी चारों ओर,
सप्तसिंधु के तरल कणों में, द्रुम-दल में, आनंद-विभोर।

शक्ति रही हां शक्ति-प्रकृति थी पद-तल में विनम्र विश्रांत,
कंपती धरणी उन चरणों से होकर प्रतिदिन ही आक्रांत।

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