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कामायनी

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :177
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9700

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विकल वासना के प्रतिनिधि से सब मुरझाये चले गये,
आह! जले अपनी ज्वाला से सिर वे जल में गले, गये।''

''अरी अपेक्षा-भरी अमरते! री अतृप्ति! निर्बाध विलास!
द्विधा-रहित अपलक नयनों की भूख-भरी दर्शन की प्यास।

बिछुड़े तेरे सब आलिंगन, पुलक-स्पर्श का पता नहीं,
मधुमय चुंबन कातरतायें, आज न मुख को सता रहीं।

रत्न-सौध के वातायन- जिसमें आता मधु-मन्दर समीर,
टकराती होगी अब उनमें तिमिंगिलों की भीड़ अधीर।

देवकामिनी के नयनों से जहां नील नलिनों की सृष्टि-
होता थी, अब वहां हो रही प्रलयकारिणी भीषण वृष्टि।

वे अम्लान-कुसुम-सुरभित-मणि-रचित मनोहर मालायें,
बनी श्रृंखला, जकड़ी जिनमें विलासिनी सुर-बालायें।

देव-यजन के पशुयज्ञों की वह पूर्णाहुति की ज्वाला,
जलनिधि में बन जलती कैसी आज लहरियों की माला।''

'' उनको देख कौन रोया यों अंतरिक्ष में बैठ अधीर!
व्यस्त बरसने लगा अश्रुमय यह प्रालेय हलाहल नीर!

हाहाकार हुआ क्रंदनमय कठिन कुलिश होते थे चूर,
हुए दिगंत बधिर, भीषण रव बार-बार होता था कूर।

दिग्दाहों से घूम उठे, या जलधर उठे क्षितिज-तट के!
सघन गगन में भीमप्रकंपन, झंझा के चलते झटके।

अंधकार में मलिन मित्र की धुंधली आभा लीन हुई,
वरुण व्यस्त थे, घनी कालिमा स्तर-स्तर जमती पीन हुई।

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