कविता संग्रह >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
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पंचभूत का भैरव मिश्रण,
शंपाओं के शकल-निपात,
उल्का लेकर अमर शक्तियां
खोज रहीं ज्यों खोया प्रात।
बार-बार उस भीषण रव से
कंपती धरती देख विशेष,
मानो नील व्योम उतरा हो
आलिंगन के हेतु अशेष।
उधर गरजती सिंधु लहरियां
कुटिल काल के जालों सी,
चली आ रहीं फेन उगलती फन
फैलाये व्यालों-सी।
धंसती धरा, धधकती ज्वाला,
ज्वाला-मुखियों के निश्वास,
और संकुचित क्रमश: उसके
अवयव का होता था ह्रास।
सबल तरंगाघातों से उस
क्रुद्ध सिंधु के, विचलित-सी-
व्यस्त महाकच्छप-सी धरणी
ऊभ-चूभ थी विकलित-सी।
बढ़ने लगा विलास-वेग-सा वह
अति भैरव जल-संधग़त,
तरल-तिमिर से प्रलय-पवन
का होता आलिंगन, प्रतिघात।
बेला क्षण-क्षण निकट आ
रही क्षतिज क्षीण, फिर लीन हुआ,
उदधि डुबाकर अखिल धारा को
बस मर्यादा-हीन हुआ!
पंच भूत का यह तांडवमय
नृत्य हो रहा था कब का।''
''एक नाव थी, और न उसमें
डांडे लगते, या पतवार,
तरल तरंगो में उठ-गिरकर
बहती पगली बारंबार।
लगते प्रबल थपेड़े, धुंधले
तट का था कुछ पता नहीं,
कातरता से भरी निराशा देख
नियति पथ बनी वहीं।
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