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कामायनी

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :177
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9700

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यह जीवन उपयोग, यही है बुद्धि-साधना,
अपना जिसमें श्रेय यही सुख की आराधना।

लोक सुखी हो आश्रय ले यदि उस छाया में,
प्राण सदृश तो रमो राष्ट्र की इस काया में।

देश कल्पना काल परिधि में होती लय है,
काल खोजता महाचेतना में निज क्षय है।

वह अनंत चेतन नचता है उन्मद गति से,
तुम भी नाचो अपनी द्वयता में - विस्मृति में।

क्षितिज पटी को उठा बढ़ो ब्रह्मांड विवर में,
गुंजारित घन नाद सुनो इस विश्व कुहर में।

ताल-ताल पर चलो नहीं लय छूटे जिसमें,
तुम न विवादी स्वर छेड़ो अनजाने इसमें।  

''अच्छा! यह तो फिर न तुम्हें समझाना है अब,
तुम कितनी प्रेरणमयी हो जान चुका सब।

किंतु आज ही अभी लौट कर फिर हो आयी,
कैसे यह साहस की मन में बात समायी।

आह प्रजापति होने का अधिकार यही क्या!
अभिलाषा मेरी अपूर्ण ही सदा रहे क्या?

मैं सबको वितरित करता ही सतत रहूं क्या?
कुछ पाने का यह प्रयास है पाप, सहूं क्या?

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