लोगों की राय

कविता संग्रह >> कामायनी

कामायनी

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :177
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9700

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

92 पाठक हैं


तुमने भी प्रतिदान दिया कुछ कह सकती हो?
मुझे ज्ञान देकर ही जीवित रह सकती हो?

जो मैं हूं चाहता वही जब मिला नहीं है,
तब लौटा लो व्यर्थ बात जो अभी कही है।''

''इड़े। मुझे वह वस्तु चाहिए जो मैं चाहूं,
तुम पर हो अधिकार, प्रजापति न तो वृथा हूं।

तुम्हें देख कर बंधन ही अब टूट रहा सब,
शासन या अधिकार चाहता हूं न तनिक अब।

देशा यह दुर्धर्ष प्रकृति का इतना कंपन!
मेरे हृदय समक्ष क्षुद्र है इसका स्पंदन!

इस कठोर ने प्रलय खेल है हंस कर खेला!
किंतु आज कितना कोमल हो रहा अकेला?

तुम कहती हो विश्व एक लय है, मैं उसमें,
लीन हो चलूं, किंतु धरा है क्या सुख इसमें।

क्रंदन का निज अलग एक आकाश बना हूं,
उस रोदन में अट्टहास हो तुमको पा लूं।

फिर से जलनिधि उछल बले मर्यादा बाहर,
फिर झंझा हो वज्र-प्रगति से भीतर बाहर,

फिर डगमग हो नाव लहर ऊपर से भागे,
रवि-शशि-तारा सावधान हों चौंकें जागें,

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book