उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
'अच्छा फिर आऊँगा।'
वीरेन्द्र और मंगलदेव
उठे, सीढी की ओर चले। गुलेनार ने झुककर सलाम किया; परन्तु उसकी आँखें
पलकों का पल्ला पसारकर करुणा की भीख माँग रही थीं। मंगलदेव ने-चरित्रवान
मंगलदेव ने-जाने क्यों एक रहस्यपूर्ण संकेत किया। गुलेनार हँस पड़ी, दोनों
नीचे उतर गये।
'मंगल! तुमने तो बड़े
लम्बे हाथ-पैर निकाले - कहाँ तो आते ही न थे, कहाँ ये हरकतें!' वीरेन्द्र
ने कहा।
'वीरेन्द्र! तुम मुझे
जानते हो; परन्तु मैं सचमुच यहाँ आकर फँस गया। यही तो आश्चर्य की बात है।'
'आश्चर्य काहे का, यही तो
काजल की कोठरी है।'
'हुआ करे, चलो ब्यालू
करके सो रहें। सवेरे की ट्रेन पकड़नी होगी।”
'नहीं
वीरेन्द्र! मैंने तो कैर्निंग कॉलेज में नाम लिखा लेने का निश्चय-सा कर
लिया है, कल मैं नहीं चल सकता।” मंगल ने गंभीरता से कहा।
'वीरेन्द्र
जैसे आश्चर्यचकित हो गया। उसने कहा, 'मंगल, तुम्हारा इसमें कोई गूढ़
उद्देश्य होगा। मुझे तुम्हारे ऊपर इतना विश्वास है कि मैं कभी स्वप्न में
भी नहीं सोच सकता कि तुम्हारा पद-स्खलन होगा; परन्तु फिर भी मैं कम्पित हो
रहा हूँ।'
सिर नीचा किये मंगल ने
कहा, 'और मैं तुम्हारे विश्वास
की परीक्षा करूँगा। तुम तो बचकर निकल आये; परन्तु गुलेनार को बचाना होगा।
वीरेन्द्र मैं निश्चयपूर्वक कहता हूँ कि यही वह बालिका है, जिसके सम्बन्ध
में मैं ग्रहण के दिनों में तुमसे कहता था कि मेरे देखते ही एक बालिका
कुटनी के चंगुल में फँस गयी और मैं कुछ न कर सका।'
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