उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
'ऐसी बहुत सी अभागिन इस
देश में हैं। फिर कहाँ-कहाँ तुम देखोगे?'
'जहाँ-जहाँ देख सकूँगा।'
'सावधान!'
मंगल चुप रहा।
वीरेन्द्र
जानता था कि मंगल बड़ा हठी है, यदि इस समय मैं इस घटना को बहुत प्रधानता न
दूँ, तो सम्भव है कि वह इस कार्य से विरक्त हो जाये, अन्यथा मंगल अवश्य
वही करेगा, जिससे वह रोका जाए; अतएव वह चुप रहा। सामने ताँगा दिखाई दिया।
उस पर दोनों बैठ गये।
दूसरे दिन सबको गाड़ी पर
बैठाकर अपने एक
आवश्यक कार्य का बहाना कर मंगल स्वयं लखनऊ रह गया। कैनिंग कॉलेज के
छात्रों को यह जानकर बड़ी प्रसन्नता हुई कि मंगल वहीं पढ़ेगा। उसके लिए
स्थान का भी प्रबन्ध हो गया। मंगल वहीं रहने लगा।
दो दिन बाद
मंगल अमीनाबाद की ओर गया। वह पार्क की हरियाली में घूम रहा था। उसे अम्मा
दिखाई पड़ी और वही पहले बोली, 'बाबू साहब, आप तो फिर नहीं आये।'
मंगल
दुविधा में पड़ गया। उसकी इच्छा हुई कि कुछ उत्तर न दे। फिर सोचा-अरे
मंगल, तू तो इसीलिए यहाँ रह गया है! उसने कहाँ, 'हाँ-हाँ, कुछ काम में फँस
गया था, आज मैं अवश्य आता; पर क्या करूँ मेरे एक मित्र साथ में हैं। वह
मेरा आना-जाना नहीं जानते। यदि वे चले गये, तो आज ही आऊँगा, नहीं तो फिर
किसी दिन।'
'नहीं-नहीं, आपको गुलेनार
की कसम, चलिए वह तो उसी दिन से बड़ी उदास रहती है।'
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