उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
किशोरी ने कहा, 'महाराज,
अपना स्वार्थ ले आया, मैंने आज तक सन्तान का मुँह नहीं देखा।'
निरंजन ने गंभीर स्वर में
पूछा, 'अभी तो तुम्हारी अवस्था अठारह-उन्नीस से अधिक नहीं, फिर इतनी
दुश्चिन्ता क्यों?'
किशोरी
के मुख पर लाज की लाली थी; वह अपनी वयस की नाप-तौल से संकुचित हो रही थी।
परन्तु तपस्वी का विचलित हृदय उसे क्रीड़ा समझने लगा। वह जैसे लड़खड़ाने
लगा। सहसा सम्भलकर बोला, 'अच्छा, तुमने यहाँ आकर ठीक नहीं किया। जाओ, मेरे
मठ में आना - अभी दो दिन ठहरकर। यह एकान्त योगियों की स्थली है, यहाँ से
चली जाओ।' तपस्वी अपने भीतर किसी से लड़ रहा था।
किशोरी ने अपनी
स्वाभाविक तृष्णा भरी आँखों से एक बार उस सूखे यौवन का तीव्र आलोक देखा;
वह बराबर देख न सकी, छलछलायी आँखें नीची हो गयीं। उन्मत्त के समान निरंजन
ने कहा, 'बस जाओ!'
किशोरी लौटी और अपने नौकर
के साथ, जो थोड़ी ही
दूरी पर खड़ा था, 'हर की पैड़ी' की ओर चल पड़ी। चिंता की अभिलाषा से उसका
हृदय नीचे-ऊपर हो रहा था।
रात एक पहर गयी होगी, 'हर
की पैड़ी' के
पास ही एक घर की खुली खिड़की के पास किशोरी बैठी थी। श्रीचन्द्र को यहाँ
आते ही तार मिला कि तुरन्त चले आओ। व्यवसाय-वाणिज्य के काम अटपट होते हैं;
वह चला गया। किशोरी नौकर के साथ रह गयी। नौकर विश्वासी और पुराना था।
श्रीचन्द्र की लाडली स्त्री किशोरी मनस्विनी थी ही।
ठंड का झोंका
खिड़की से आ रहा था; अब किशोरी के मन में बड़ी उलझन थी-कभी वह सोचती, मैं
क्यों यहाँ रह गयी, क्यों न उन्हीं के संग चली गयी। फिर मन में आता,
रुपये-पैसे तो बहुत हैं, जब उन्हें भोगने वाला ही कोई नहीं, फिर उसके लिए
उद्योग न करना भी मूर्खता है। ज्योतिषी ने भी कह दिया है, संतान बड़े
उद्योग से होगी। फिर मैंने क्या बुरा किया?
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