उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
|
2 पाठकों को प्रिय 371 पाठक हैं |
कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
अब शीत की प्रबलता
हो चली थी, उसने चाहा, खिड़की का पल्ला बन्द कर ले। सहसा किसी के रोने की
ध्वनि सुनायी दी। किशोरी को उत्कंठा हुई, परन्तु क्या करे, 'बलदाऊ' बाजार
गया था। चुप रही। थोड़े ही समय में बलदाऊ आता दिखाई पड़ा।
आते ही उसने कहा,
'बहूरानी कोई गरीब स्त्री रो रही है। यहीं नीचे पड़ी है।'
किशोरी ही दुःखी थी।
संवेदना से प्रेरित होकर उसने कहा, 'उसे लिवाते क्यों नहीं लाये, कुछ उसे
दे आते।'
बलदाऊ
सुनते ही फिर नीचे उतर गया। उसे बुला लाया। वह एक युवती विधवा थी।
बिलख-बिलखकर रो रही थी। उसके मलिन वसन का अंचल तर हो गया था। किशोरी के
आश्वासन देने पर वह सम्हली और बहुत पूछने पर उसने कथा सुना दी - विधवा का
नाम रामा है, बरेली की एक ब्राह्मण-वधू है। दुराचार का लांछन लगाकर उसके
देवर ने उसे यहाँ छोड़ दिया। उसके पति के नाम की कुछ भूमि थी, उस पर
अधिकार जमाने के लिए उसने यह कुचक्र रचा है।
किशोरी ने उसके
एक-एक अक्षर का विश्वास किया; क्योंकि वह देखती है कि परदेश में उसके पति
ने उसे छोड़ दिया और स्वयं चला गया। उसने कहा, 'तुम घबराओ मत, मैं यहाँ
कुछ दिन रहूँगी। मुझे एक ब्राह्मणी चाहिए ही, तुम मेरे पास रहो। मैं
तुम्हें बहन के समान रखूँगी।'
रामा कुछ प्रसन्न हुई।
उसे आश्रय
मिल गया। किशोरी शैया पर लेट-लेटे सोचने लगी-पुरुष बड़े निर्मोही होते
हैं, देखो वाणिज्य-व्यवसाय का इतना लोभ है कि मुझे छोड़कर चले गये। अच्छा,
जब तक वे स्वयं नहीं आवेंगे, मैं भी नहीं जाऊँगी। मेरा भी नाम 'किशोरी'
है! - यही चिंता करते-करते किशोरी सो गयी।
|