उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
|
1 पाठकों को प्रिय 266 पाठक हैं |
रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
कुसुम कुमारी
पहला बयान
ठीक दोपहर का वक्त और गर्मी का दिन है। सूर्य अपनी पूरी किरणों का मजा दिखा रहे हैं। सुनसान मैदान में दो आदमी खूबसूरत और तेज घोड़ों पर सवार साये की तलाश और ठंडी जगह की खोज में इधर-उधर देखते घोड़ा फेंके चले जा रहे हैं। ये इस बात को बिलकुल नहीं जानते कि शहर किस तरफ है या आराम लेने के लिए ठंडी जगह कहां मिलेगी। घड़ी-घड़ी रूमाल से अपने मुंह का पसीना पोंछते और घोड़ा को एड़ लगाते बढ़े जा रहे हैं।
इन दोनों में से एक ही उम्र अठारह या उन्नीस वर्ष की होगी, दिमागदार खूबसूरत चेहरा धूप में पसीज रहा है, बदन की चुस्त कीमती पोशाक, पसीने से तर हो रही है, जड़ाऊ कब्जेवाली इसकी तलवार फौलादी जड़ाऊ म्यान के सहित उछल-उछलकर घोड़े के पेट से टक्कर मारती और चलने में घोड़े को तेज करती जाती है। इसका घोड़ा भी जड़ाऊ जीन से कसा और कीमती गहनों से भरा, अपने एक पैर की झांझ की आवाज पर मस्त होकर चलने में सुस्ती नहीं कर रहा था। ऐसे बांके बहादुर खुशरू दिलावर जवान को जो देखे वह जरूर यही कहे कि किसी राजा का लड़का है और शायद शिकार में भूला हुआ भटक रहा है।
इसका साथी दूसरा शेरदिल भी जो इसके साथ-साथ अपने तेज घोड़े को डपेटे चला जा रहा है, खूबसूरती दिलावरी साज और पोशाक में बेनजीर मालूम होता है, फर्क इतना ही है कि इसको देखनेवाला यह कहने से न चूकेगा कि यह पहले बहादुर राजकुमार का वजीर या दीवान है, जो ऐसे वक्त में अपने मालिक का जी जान से साथ दे रहा है।
यह दोनों दिलावर इसी तरह देर तक घोड़ा फेंके चले गए मगर कहीं भी आराम लेने के लिए कोई सायेदार दरख्त इन्हें नजर न आया, यहां तक कि दिन सिर्फ घंटे भर बाकी रह गया जब दूर पर एक छोटी-सी पहाड़ी नजर आई जिसके नीचे कुछ सायेदार पेड़ों का भी निशान मालूम हुआ।
इन दोनों के तेज घोड़े धूप में दौड़ते बिलकुल सुस्त हो रहे थे, बड़ी मुश्किल से उस पहाड़ी के नीचे तक पहुंचे और पीठ खाली होते ही जीभ निकाल हांफते हुए जमीन पर गिरकर देखते-देखते बेदम हो गए।
|