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उपन्यास >> कुसम कुमारी

कुसम कुमारी

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :183
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9703

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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी

इन दोनों को पहाड़ी के नीचे सायेदार दरख्तों के मिलने की इतनी खुशी न हुई जितना दोनों घोड़ों के मर जाने का रंज और गम हुआ। हमारे राजकुमार रनबीर सिंह ने आंखें डबडबाकर अपने मित्र जसवंतसिंह से कहा–रनबीर-इन घोड़ों ने आज हम लोगों की जान बचाई और अपनी जान दी। अफसोस कि इस वफादारी के बाद हम लोग इनकी कोई खिदमत न कर सके। सिवाय इसके हम लोगों को यह भी बिलकुल नहीं मालूम की किधर चले आए और अपना घर किस तरफ है।

जसवंत–इसमें तो कोई शक नहीं कि इन घोड़ों के मर जाने से बहुत-सी तकलीफों का सामना करना पड़ेगा, हम लोग पैदल चलकर तीन दिन में भी उतनी दूर नहीं जा सकते जितना आज इन घोड़ों पर चले आए।

रनबीर-इस पहाड़ी के ऊपर चढ़कर चारों तरफ देखना चाहिए कि कहीं किसी शहर का निशान दिखाई पड़ता है या नहीं। (पहाड़ी की तरफ देखकर) इस पर चढ़ने के लिए पगडंडी नजर आ रही है। मालूम होता है कि इस पहाड़ी पर आदमियों की आमदरफ्त जरूर होती है।

जसवंत–(पहाड़ी के ऊपर निगाह करके) हां, मालूम तो यही होता है।

रनबीर–तो चलो? फिर देर करने की कोई जरूरत नहीं।

जसवंत–चलिए।

मरे हुए घोड़ों को कसे कसाये उसी तरह छोड़ ये दोनों उस पहाड़ी के ऊपर चढ़ने लगे। बिलकुल शाम हो गई थी जब ऊपर पहुंचे।

पहाड़ी के ऊपर पहुंचने ही से इन दोनों की तबीयत हरी हो गई और उतनी फिक्र न रही जितनी उस वक्त थी जब ये पहाड़ी के नीचे थे, क्योंकि ऊपर पहुंचकर एक छोटे बागीचे की निहायत खूबसूरत चारदीवारी दिखाई पड़ी और बाएं तरफ कुछ दूर पर एक गाँव का निशान भी मालूम हुआ, मगर वह इतना नजदीक न था कि दो-तीन घंटे रात जाते-जाते भी ये दोनों वहां तक पहुंच सकते।

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