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उपन्यास >> कुसम कुमारी

कुसम कुमारी

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :183
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9703

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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी

रनबीर–हां, मेरा जी भी पहले और उन भेदों का पता लगे जिनके जाने बिना जी बेचैन हो रहा है।

दीवान–हां, ठीक है, परन्तु ऐसा करने की आज्ञा नहीं है।

रनबीर–(ताज्जुब से) किसकी आज्ञा और कैसी आज्ञा?

दीवान–जिस समय राजा कुबेरसिंह और राजा इन्द्रनाथ ने इस कमरे की ताली मेरे सुपुर्द की थी उस समय अपना और इन तसवीरों का भेद अच्छी तरह समझाने के बाद मुझे ताकीद कर दी थी कि इन तसवीरों के भेद बीमारी की अथवा रंज की अवस्था में आप लोगों से कदापि न कहूं इसलिए जब मैं आपको और कुसुम कुमारी को अच्छी तरह प्रसन्न देखूंगा तभी जो कुछ कहना होगा कहूंगा।

रनबीर–(कुछ सोचकर) ठीक है, यह आज्ञा भी मतलब से खाली नहीं है, खैर।

कुसुम–मैं भी बड़ों की आज्ञा मानना उचित समझती हूं, अच्छा यदि बालेसिंह के विषय में कुछ खबर मिली हो तो कहिए।

दीवान–अभी दो घण्टे हुए होंगे एक जासूस ने खबर दी थी कि बालेसिंह दर्द से बहुत ही बेचैन है, रंज और गुस्से में और तो कुछ कर न सका केवल कमबख्त कालिन्दी की नाक काट कर उसे निकाल दिया और आप भी वहां से कूच करने की तैयारी कर रहा है।

बीरसेन–अब भी यदि यहां से न भागे तो उसकी शामत ही कहना चाहिए क्योंकि वह अपनी सजा को पहुंच चुका और अब बहादुरी दिखाने योग्य नहीं रहा।

दीवान–हां, जसवंत के मरने से वह और भी निराश हो गया।

बीरसेन–(रनबीरसिंह की तरफ इशारा करके) अहा, लड़ाई के समय इनकी बहादुरी देखने योग्य थी। मुझे तो जन्म भर ऐसा याद रहेगी जैसे आज ही की बात हो।

रनबीर–(बीरसेन से) हां, यह तो तुमने ठीक तरह से कहा ही नहीं कि जब कुसुम की खोज में यहां से निकले तो क्या-क्या हुआ और कुसुम का पता लगाने में क्या-क्या कठिनाइयां हुईं।

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