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धर्म एवं दर्शन >> क्या धर्म क्या अधर्म

क्या धर्म क्या अधर्म

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :82
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9704

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धर्म और अधर्म का प्रश्न बड़ा पेचीदा है। जिस बात को एक समुदाय धर्म मानता है, दूसरा समुदाय उसे अधर्म घोषित करता है।


आत्म-गौरव की वृद्धि चाहने की भावना सर्वत्र पाई जाती है। नेता, मुखिया, गुरु, शासक, व्यवस्थापक, अधिकारी, पदवीधारी, जीवन मुक्त, सिद्ध, वैज्ञानिक विद्वान, दार्शनिक, आविष्कारक, संचालक बनने की इच्छाऐं मानसिक भूमिका को आन्दोलित करती रहती हैं।

चरित्रवान्, धर्मनिष्ठ, सदाचारी, सद्गुणी, कर्तव्य परायण व्यक्तियों में स्वाभिमान की भावना प्रमुख होती है। वे आत्म-गौरव को स्वयं अनुभव करते हैं और उसे ऐसे सुन्दर ढंग से संसार के सामने रखते हैं कि अन्य लोग भी उनके व्यक्तित्व का आदर करें। नीचे दर्जे के लोग कपड़े, जेवर, धन, सवारी, पदवी आदि की सहायता से अपनी महत्ता प्रकट करते हैं और ऊँची श्रेणी के विचार वाले व्यक्ति सद्गुणों से अपने आपे का प्रदर्शन करते हैं। ''आत्मा का बढ़ा हुआ गौरव अनुभव करना,' सारी योग साधना का केवल मात्र इतना ही दृष्टि बिन्दु है आत्मा को परमात्मा में मिला देना, मुक्ति लाभ करना, इन शब्दों के अन्तर्गत आत्म-गौरव की वृद्धि करने की ही भावना खेल रही है। स्वाभिमान की, आत्म-सम्मान की आकांक्षा उन्नततम, विकासवान मनुष्यों में अधिक स्पष्ट देखी जाती है क्योंकि वह इच्छा उच्च आध्यात्मिक, सतोगुणी भूमिका में उत्पन्न होती है। आत्म-गौरव की प्राप्ति मनुष्य की आध्यात्मिक भूख है। जो इस साधना में प्रवृत्त है वह धर्मात्मा कहलाता है किन्तु जिसने आत्म-सम्मान नष्ट करके दीनता, दासता, पशुता को अपना लिया है, वह पापी है। इसी प्रकार वह भी पापी है जो अनुचित आत्म-गौरव में प्रवृत है। ऐसे मनुष्य अहंकारी, घमण्डी, अकड़बाज, बदमिजाज कहकर अपमानित किए जाते हैं।

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