धर्म एवं दर्शन >> क्या धर्म क्या अधर्म क्या धर्म क्या अधर्मश्रीराम शर्मा आचार्य
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धर्म और अधर्म का प्रश्न बड़ा पेचीदा है। जिस बात को एक समुदाय धर्म मानता है, दूसरा समुदाय उसे अधर्म घोषित करता है।
मनुष्य को मनुष्य बनना
चाहिए। इन्सानियत, आदमियत, मनुष्यत्व वह स्वर्ग सोपान है जिसके लिए देवता
भी तरसते हैं। इस मध्यम मार्ग को अपनाने वाले देव-स्वभाव के मनुष्य
कर्तव्य परायण एवं धर्मात्मा कहे जाते हैं। इन्सानियत धर्म है, इसके अभाव
को हैवानियत और अति को शैतानियत कहते हैं। जो व्यक्ति अपनी स्वाभाविक,
ईश्वर प्रदत्त इच्छाओं को कुचलता हुआ दीनतापूर्वक अभावग्रस्त जीवन व्यतीत
कर रहा है वह आत्मघाती पशुता को अपनाने वाला अधर्मी है। इसी प्रकार वह भी
अधर्मी है जो इच्छाओं की अति पूर्ति के लिए व्याकुल होकर मर्यादा को छोड़
बैठता है। दूसरों की परवाह किए बिना अत्यन्त तीव्र वेग से, इच्छाओं को
पूर्ण करने के लिए तूफानी गति से दौड़ता है। उस परपीड़क, शैतानियत को ग्रहण
करने वाले को अधर्मी के अतिरिक्त और क्या कहा जाय? अति में पाप है और अभाव
में भी पाप है। अत्यन्त धीरे चलने वाला पिछड़ जाता है और अधिक दौड़ने वाला
थककर चूर हो जाता है। इसलिए आप मध्यम मार्ग को ग्रहण कीजिए, दीनतापूर्वक
अकर्मण्यता के अज्ञान में पड़े अभावग्रस्त जीवन बिताना छोड़िये ! चलिए, उठिए
मनुष्यों की भांति गौरव और सुख- शान्ति का जीवन प्राप्त कीजिए! परमात्मा
ने आपको जो भूखें दी हैं वे आपकी उन्नति में सहायता के लिए हैं, उन्हें
पूरा करने के लिए विवेकपूर्वक अपना कार्यक्रम निर्धारित कीजिए। संसार सब
प्रकार सुविधाजनक सामग्रियों से भरा पूरा है, फिर आप ही क्यों मलिन, उदास,
अभावग्रस्त, दीनतापूर्वक जीवन बितावें? उठिए, मध्यम मार्ग को अपनाइए और
मनुष्यों का सा सुव्यवस्थित जीवन व्यतीत कीजिए लेकिन सावधान रहना कहीं
आपकी इच्छायें अमर्यादित होकर शैतानियत की ओर न खिसक पड़ें। घोड़े को आगे
रोक, पीछे ठोक नीति से कदम चाल चलना सिखाया जाता है। आप जीवन को विकसित
कीजिए किन्तु उसे शैतानियत तक मत बढ़ने दीजिए। मनुष्य का धर्म है इसलिए इसी
अमृतमय मध्यम मार्ग पर आरूढ़ होते हुए अपनी मंगलमय जीवन यात्रा को आगे बढ़ने
दीजिए।
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