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उपन्यास >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :149
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


“मैं ठीक हूँ। अपने-आप चली जाऊँगी।”

थोड़ी देर फिर वर्षा की टपाटप। भुवन ने कहा, “यह वर्षा असमय नहीं है?”

“पता नहीं। हर साल ही असमय हो तो असमय कैसे कहा जाये? प्रायः ही शुरू सितम्बर में जोर का दौर आता है - और बाढ़ भी जब आती है इन्हीं दिनों।”

फिर केवल वर्षा का स्वर रह गया।

“काफ़ी पियोगे?”

भुवन ने अचकचा कर कहा, “अब?”

“हाँ, मेरे कमरे में स्टोव है - मैं कभी-कभी रात को बनाती हूँ।”

“अब नहीं, रेखा। पर - तुम पियो तो मैं बना लाऊँ।”

रेखा ने सिर हिला दिया।

थोड़ी देर बाद बोली, “कैसे हम लोग मानो सात बरस से ब्याहे पति-पत्नी की तरह हो गये हैं - बातचीत के लिए कोई विषय नहीं मिलता, तकल्लुफ की बातें कर रहे हैं।”

भुवन ने हँसकर कहा, “तकल्लुफ बाकी है, यही क्या कम है? सात बरस बाद तो रुखाई का वक़्त आ जाता है - या बिलकुल मौन उपेक्षा का!”

रेखा ने कहा, “इसीलिए क्या तुम मुझे कह रहे हो।”

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