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उपन्यास >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :149
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


भुवन ने एकाएक पास आकर उसके दोनों कान पकड़ लिए, धीरे-धीरे उसका मुँह ऊपर को उठाते हुए कहा, “पगली, एक तो बात नहीं सुनती, फिर चिढ़ाती है?” और ओठों के कोमल स्पर्श से उसका सीमान्त छू लिया।

रेखा ने अस्पष्ट स्वर में कहा, “गाड ब्लेस यू...”

भुवन फिर मैण्टल के पास चला गया। थोड़ी देर बाद बोला, “रेखा, तुम्हें गाना सुनाने को आज नहीं कहूँगा - मैं कुछ पढ़ कर सुनाऊँ?”

“सुनाओ - पर बत्ती वहाँ रख दूँ?”

“नहीं, मैं वहीं आता हूँ”, कहकर भुवन ने दूसरी दीवार से लगी मेज़ पर से दो-एक पुस्तकों में से एक उठायी, अभ्यस्त हाथों से पन्ने उलटकर मनचाहा स्थल निकाला और रेखा के पैरों के पास फ़र्श पर बैठ गया, जहाँ रोशनी पुस्तक पर पड़ रही थी। रेखा ने झुककर देखा-ब्राउनिंग।

“साथ लाये हो?”

उत्तर दिये बिना ही भुवन पढ़ने लगा :

हाउ वेल आई नो ह्वाट आई मीन टु डू
ह्वेन द लांग डार्क ऑटम ईवनिंग्स कम ,
एंड ह्वेयर , माइ सोल, इज दाइ प्लैंजेंट ह्यू?
विद द म्यूज़िक आफ ऑल दाइ वायसेज़ , डम्ब
इन लाइफ़्स नवैम्बर , टू!

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