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उपन्यास >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :149
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


9

जलती हुई एक लकड़ी एक ओर गिरी; प्रकाश कुछ मन्दा पड़ गया। आग ठीक करने के लिए रेखा खड़ी हुई तो भुवन ने कहा, “रेखा, तुम्हारे कमरे में तो आग नहीं है।”

“बनी हुई रखी है। जाऊँगी तो जला लूँगी।”

“पर कमरा गरम होते तो देर लगेगी, मैं अभी जला आऊँ।”

उसकी कलाई पर हाथ रखकर उसे रोकते हुए रेखा ने आग्रहपूर्वक कहा, “नहीं, तुम बैठो।”

दोनों फिर बैठ गये। किताबें हटा दी गयी, दोनों चुप-से हो गये।

थोड़ी देर बाद भुवन ने कहा, “रेखा, तुम्हें क्या ज़रूर अभी कमरे में चले जाना है?”

रेखा कुछ बोली नहीं, उसकी ओर देखकर रह गयी।

भुवन ने धीरे-धीरे हाथ पकड़ कर उसे उठाया, और पलंग पर जा लिटाया। स्वयं एक बाहीं पर बैठ गया, धीरे-धीरे रेखा का कन्धा थपकने लगा।

आग मन्दी पड़ गयी, अंगारे ही लाल-लाल चमकते रहे गये। छायाओं का नाच समाप्त हो गया, एक धुँधली लाल झलक छत पर रह गयी। रेखा का चेहरा मँजे ताँबे-सा दीखने लगा।

वह बोली, “तुम्हें-नौकुछिया याद है?”

भुवन ने सिर हिलाया।

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