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उपन्यास >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :149
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


“मैंने माँगा था और तुम रोये थे।”

भुवन ने हाथ झुका कर उसके ओठ ढँक दिये। रेखा ने उसका हाथ हटाकर कहा, “तब तुमने क्या कहा था - याद है?”

भुवन ने फिर सिर हिला दिया।

“तुमने कहा था, “यह इनकार नहीं है'...तुम ने कहा था, “जो सुन्दर है उसे मिटाना नहीं चाहिए - जोखिम में नहीं डालना चाहिए'...कहा था न?” भुवन ने फिर सिर हिला दिया।

रेखा थोड़ी देर चुप रही। फिर उसने कहा, “तो वह सब मैं तुमसे कहती हूँ। यह भी प्रत्याख्यान नहीं है भुवन - मैं सचमुच तुम्हारे पैर चूम सकती हूँ।”

वह जैसे उठने को हुई; भुवन ने उसे रोक दिया। वैसे ही थपकता रहा।

थोड़ी देर बाद रेखा ने फिर कहा, “भुवन, इस विषय को समाप्त मान लिया जाये - क्या इसे फिर उठाना होगा?”

भुवन ने कहना चाहा, “पर मैंने तो फिर जोखिम उठाया था - और उससे सुन्दर पुष्ट ही हुआ, नष्ट तो नहीं हुआ।” पर कह नहीं सका, स्वयं उसे ही लगा कि दोनों बातों में कुछ अन्तर है। फिर उसने कहना चाहा, “जोखिम तो हर सुन्दर चीज़ में है, बल्कि आनुपातिक होता है” पर यह बात भी उससे कहते नहीं बनी। वह केवल रेखा का कन्धा थपकता रहा।

थोड़ी देर बाद बोला, “अच्छा रेखा, तुम्हारी यही इच्छा है तो - यही सही। पर उससे पहले कुछ और कह लेने दो - और उसे याद रखना - भूलना मत कभी।”

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