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परिणीता

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :148
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9708

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‘परिणीता’ एक अनूठी प्रणय कहानी है, जिसमें दहेज प्रथा की भयावहता का चित्रण किया गया है।


गिरीन्द्र ने कुछ संकोच के साथ कहा- तो शायद दफ्तर में कुछ?

''नहीं जी, यह भी कुछ नहीं है'' कहकर गुरुचरण ने कुछ विस्मय के साथ गिरीन्द्र के मुख पर नजर डाली। बाहर चेहरे पर मन के भीतर की घबराहट और चिन्ता जो झलक रही थी, उसकी कुछ खबर ही इस अत्यन्त सरल स्वभाव के मनुष्य को नहीं थी।

ललिता पहले पहल तो बिलकुल ही चुपकी बैठी रहा करती थी, किन्तु आजकल बीच-बीच में दो-एक बातें वह भी कह बैठती है। उसने कहा- हाँ मामा, आज शायद आपकी तबियत कुछ खराब है।

गुरुचरण ने हँसकर कहा- अच्छा, यह बात है! हाँ बेटी, तूने ठीक ताड़ लिया। आज मेरा मन सचमुच अच्छा नहीं है।

ललिता और गिरीन्द्र, दोनों उनके मुख की ओर देखने लगे।

गुरुचरण- नवीन दादा मेरा सब हाल जानते हैं। फिर भी उन्होंने आज सरेराह खड़े होकर दो-चार कड़ी बातें सुना दीं। मगर इसमें उनका क्या कुसूर। छः-सात महीने बीत गये, एक पैसा सूद का नहीं दे सका, असल की कौन कहे।

सारा मामला ललिता समझ गई। वह बात टालने के लिए व्यग्र हो उठी। उसके भोलानाथ मामा को यह सलीका नहीं है कि कब किसके आगे कौन सी बात न कहनी चाहिए। वे कहीं अपने घर की वह बात, जिसका जाहिर होना लज्जाजनक है, एक गैर आदमी के आगे न कह बैठें, इस भय से वह चटपट कह उठी- इसके लिए तुम कुछ चिन्ता न करो मामा, ये बातें फिर होंगी।

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