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परिणीता

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :148
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9708

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‘परिणीता’ एक अनूठी प्रणय कहानी है, जिसमें दहेज प्रथा की भयावहता का चित्रण किया गया है।


लाचार होकर ललिता को उठना पडा; किन्तु जाने के पहले वह जो गहरी कृतज्ञता जताने वाली दृष्टि गिरीन्द्र के मुख पर डाल गई, उसे गिरीन्द्र ने अच्छी तरह देख लिया।

दस-बारह मिनट के बाद कपड़े वगैरह पहनकर, तैयार होकर, पान देने के बहाने ललिता और एक वार दबे-पैरों बाहर की बैठक में आई।

गिरीन्द्र चला गया था। गुरुचरण अकेले गाव-तकिये पर सिर रक्खे, आँखें मूँदे पडे़ थे। उनकी बन्द आँखों के कोनों से जो आँसू वह रहे थे उन्हें देखकर ललिता समझ गई कि ये आँसू आनन्द के हैं और इसी कारण मामा को उसी अवस्था में रहने देकर जैसे चुपके से आई थी वैसे ही चली गई।

वहाँ से जब ललिता शेखर के घर पहुँची, तब उसकी आंखें भी आँसुओं से भरी हुई थीं। अन्नाकाली वहाँ न थी; वइ सबसे पहले जाकर गाडी में वैठ गई थी।

अकेला शेखर अपने कमरे के भीतर चुपचाप खड़ा था। शायद ललिता की प्रतीक्षा कर रहा था। सिर उठाकर देखा तो ललिता की आँसू-भरी आँखें देख पड़ीं।

आठ-दस दिन से ललिता को न देखने से शेखर अपने मन में बहुत ही नाराज हो रहा था; लेकिन इस समय सब कुछ भूलकर वह घबराकर कह उठा- यह क्या, रोती हो क्या?

ललिता ने सिर नीचा करके प्रबल वेग से सिर हिलाया। इधर, इन कई दिनों से ललिता के न देख पड़ने के कारण शेखर के मन में एक प्रकार का परिवर्तन हो रहा था।

इसी से उसने पास आकर दोनों हाथों से पकड़कर एकाएक ललिता का मुख ऊपर उठाया, और कहा- ऐं, तुम तो सचमुच रो रही हो? बताओ तो, क्या हुआ?

अब और अधिक अपने को सँभाल रखना असम्भव हो उठा। ललिता उसी जगह बैठ गई, और आँचल से मुँह ढककर रोने लगी।

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