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परिणीता

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :148
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9708

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‘परिणीता’ एक अनूठी प्रणय कहानी है, जिसमें दहेज प्रथा की भयावहता का चित्रण किया गया है।

6

नवीन राय ने सब सूद और असल की पाई-पाई हिसाब लगाकर गिन ली, और फिर तमस्सुक लौटाते हुए गुरुचरणसे कहा- क्यों जी, ये रुपये तुमको किसने दिये?

गुरुचरण ने नम्र भाव से कहा- यह न पूछिए दादा, कहने की मनाही है।

अपने रुपये वसूल होने से नवीन राय तनिक भी सन्तुष्ट नहीं हुए। इसकी तो उन्हें न आशा थी, न इच्छा। बल्कि उन्होंने तो गुरुचरण के घर को गिरवाकर वहां कैसे नक्शे की नई इमारत खड़ी करेंगे, यह सोचकर ठीक कर रक्खा था। गुरुचरण का उत्तर सुनकर ताने के साथ बोले- सो अब तो मनाही होगी ही। भाई साहब, दोष तुम्हारा नहीं, मेरा है। मैंने रुपयों का तगादा किया, यही मेरी खता है। ऐसा न हो तो फिर कलिकाल की करामात ही क्या!

गुरुचरण बहुत व्यथित होकर बोले- यह क्या कहते हो दादा! आपका ऋण ही तो चुका सका हूँ, आपकी दया का ऋण तो मुझपर बना ही रहेगा- उसे तौ मैं कभी किसी तरह नहीं चुका सकूँगा।

नवीन बाबू हँसने लगे। वे पक्के उस्ताद ठहरे; अगर ऐसे चतुर, चंट-चालाक न होते, अगर ऐसी बातों पर विश्वास कर लिया करते, तो गुड़ बेचकर आज इतनी जमा कभी न जमा कर पाते। सुनकर बोले-- कहने को चाहे जो कहो, लेकिन जो तुम सचमुच यही सोचते भैया, तो इस तरह हिसाब न चुका देते। माना, मैंने एक बार तुमसे तगादा ही किया- वह भी तुम्हारी भाभी की बीमारी के लिए, कुछ अपने लिए नहीं-खैर, यह तो बताओ भला, कितने सूद पर घर रेहन रक्खा है?

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